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के कारण भाजपा के साथ आए दलित वर्ग को लगा कि उनके दैनिक जीवन में पहली बार बदलाव आया है । कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा सरे तीन-तीन बार समझौता करनरे के कारण मुसलमान मतदाता का बसपा सरे मोहभंग हो गया ।
मुसलमानों का धर्म पहले है , देश बाद में : आं बेडकर
यह निषकषदा किसी राजनीतिक एजेंडे के लिहाज सरे तो सही हो सकता है , पर तथयों के आधार पर नहीं । डॉ . आंबरेडकर , कांशीराम और मायावती , तीनों को कभी इसका मुगालता नहीं रहा कि मुसलमान उनके साथ रहरेगा । उनहें पता
था और वरे इसरे ्वीकार भी करतरे थरे कि मुसलमान सिर्फ उनका वोट िरेनरे के लिए आता है । गुजरात में 2002 के दंगरे के बाद वहां जाकर भाजपा और मोदी के पक्ष में मायावती का बोलना बिना सोचा-समझा कदम नहीं था । उनको पता है कि वरे मुसलमान को टिकट देंगी तो मुसलमान उस उममीदवार को वोट दरेगा , पर बसपा के किसी और उममीदवार को नहीं दरेगा । आंबरेडकर का मुसलमानों के बाररे में बड़ा ्पषट मत था कि उनके लिए धर्म पहिरे है , दरेि बाद में । उनका भाईचारा केवल अपनी कौम के लिए ही है । इसलिए यह कहना कि बसपा को कभी यह उममीद थी कि मुसलमान उसके साथ आएगा और भाजपा सरे गठबंधन के कारण चला गया , सतय सरे पररे है । जब उतिर प्दरेि में पहली बार बसपा की पूर्ण बहुमत सरकार बनी और
नवनिर्वाचित विधायकों के साथ मायावती की पहली बैठक हुई तो उनहोंनरे कहा कि रिाह्मण विधायक सतीश मिश्ा के पास चिरे जाएं , मुसलमान विधायक नसीमुद्ीन सिद्ीकी के पास और दलित-लप्छड़े मरेररे साथ बैठें ।
दलित राजनरीति में बदलाव
बात घूम फिर कर फिर वहीं आती है कि आखिर दलितों का एक वर्ग मायावती को ्छोड़कर ्यों गया ? समाजशा्त्ी डॉ . सुधा पई नरेंद्र मोदी , अमित शाह , भाजपा और राषट्ीय ्वयंसरेवक संघ की 2014 की रणनीति की परोक्ष रूप सरे त्दीक ही करती हैं । उनके मुताबिक दलित राजनीति में बदलाव के दो
कारण हैं । पहला , अस्मता की राजनीति कमजोर पड़ रही है । दूसरा , विकास की आकांक्षा बढ़ना । उनहोंनरे दलित समाज में बनी इस राजनीतिक खरेमरेबंदी को आंबरेडकरवादी दलित बनाम हिंदुतववादी दलित का नाम दिया । वह कहती हैं कि भाजपा हिंदुतव की अस्मता के तहत इस वर्ग का सामाजिक समावरेिन कर रही है । दलित चिंतक डॉ . चंद्रभान का अलग ही मत है । उनके मुताबिक बसपा मानवीय ऑ्सीजन ( दलित समर्थन ) के बिना ही राजनीतिक एवरेस्ट पर चढ़ गई । इसलिए उस ऊंचाई पर टिक नहीं पाई । उनका मानना है कि विचारधारा की दृष्टि सरे दलित राजनीति अब कांशीराम के बाद के युग में पहुंच गई है । अब राजनीतिक शक्त उसके लिए सुपर मैग्नेट नहीं होगी , कु्छ और होगा । ्या ? यह वह नहीं बतातरे ।
यूपरी की दलित राजनरीति की तुलना बिहार और पंजाब से नहीं हो सकतरी
उतिर प्दरेि की दलित राजनीति की तुलना बिहार , और पंजाब सरे नहीं हो सकती , ्योंकि तीनों राजयों में परिस्थलतयां ही नहीं , दलित समाज की संरचना में भी अंतर है । पंजाब में दलित समाज इतनी जयादा जातियों में नहीं बंटा , जितना उतिर प्दरेि में । वहां बड़ा बंटवारा सिख और गैर सिख दलितों का है । जातियों की संखया कम होनरे के बावजूद वरे कभी राजनीतिक रूप सरे एक नहीं होतीं । बिहार में दलित राजनीति खासतौर सरे बसपा की राजनीति की धुरी यानी जाटवों की संखया बहुत कम है । यही कारण है कि बाबू जगजीवन राम जयादातर कम अंतर सरे ही लोकसभा चुनाव जीततरे थरे । बिहार में दलितों में प्भावशाली जाति पासवान है ।
दलित राजनरीति देश की मुख्यधारा में आ रिरी
रामविलास पासवान लंबरे समय तक उसके नरेता रहरे । उनके निधन के बाद परिवार में बंटवारा और पाटटी पर कब्जे की लड़ाई चल रही है । उनके बरेटे चिराग पासवान को यदि पिता की राजनीतिक विरासत हासिल करनी है तो सड़क पर उतरकर लंबरे संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा । लगता नहीं कि वह ऐसा कर पाएंगरे । एक बात यह कही जा सकती है कि दलित राजनीति दरेि की मुखयधारा में आ रही है । मुखयधारा सरे आशय यह है कि वह किसी एक नरेता , पाटटी या विचारधारा की बंधुआ नहीं रह गई है । दलित समाज अपना सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक हित दरेखकर फैसला करनरे में सक्षम हो गया है । वह मुसलमानों की तरह अपनरे ही समाज के उन चिंतकों के भुलावरे में आनरे को तैयार नहीं है कि भाजपा उनकी दुशमन है । यही कारण है कि भाजपा और गैर जाटव दलितों का गठबंधन लप्छिरे सात साल में कमजोर नहीं हुआ है ।
( साभार )
18 दलित आं दोलन पत्रिका vDVwcj 2021