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नेताओ ंके बंधुआ
नहीं रहे दलित सामाजिक , राजनरीवतक और आर्थिक हित देखकर फै सला लेने में दलित समाज सषिम
प्रिरीि सिंह
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दलित राजनीति बदलाव के मुहानरे पर खड़ी है ? ्या कांशीराम का बहुजन समाज को सतिा में ्थालपत करनरे का राजनीतिक प्योग फेल हो गया है ? ्या दलित समाज अस्मता की राजनीति के सैचुररेिन पवाइंट पर पहुंच गया है या फिर सामाजिक नयाय की राजनीति सरे निकलकर आकांक्षा की राजनीति की ओर जा रहा है ? उतिर प्दरेि में दलित समाज के एक बड़े वर्ग , खासतौर सरे गैर जाटव दलितों का मायावती की बसपा सरे हटकर भाजपा की ओर जाना इसी बदलाव का संकेत है , िरेलकन ऐसरे बहुत सरे सवाल हैं जिनका कोई ्पषट जवाब नहीं मिल रहा है , ्योंकि इस बाररे में कोई गंभीर समाजशा्त्ीय अधययन नहीं हुआ है । साररे अनुमान , निषकषदा चुनाव नतीजों के आधार पर निकािरे जा रहरे हैं । उतिर प्दरेि नरे लप्छिरे कु्छ दशकों में राजनीतिक दलितीकरण की जो प्लकया दरेखी है , वह किसी और राजय नरे नहीं दरेखी । दूसररे राजयों में राजनीति के मंडलीकरण नरे दलितों के राजनीतिक उन्यन को रोक दिया । मायावती प्दरेि की चार बार मुखयमंत्ी रह चुकी हैं । बड़ी दलित आबादी वािरे पंजाब और बंगाल तो इस मामिरे में उतिर प्दरेि सरे बहुत पी्छे हैं । इन दोनों राजयों में तो दलित नरेता के हाथ सतिा की बागडोर ्छोड़िए , पाटटी संगठन और सरकार
में हिस्सेदारी भी नहीं मिली ।
मुसलमान मतदाता का बसपा से मोहभंग
वामदल अपनरे संगठन में एक भी प्मुख दलित नरेता होनरे का दावा नहीं कर सकतरे । उप् में राजनीतिक दलितीकरण के कारण इस वर्ग को सामाजिक शक्त भी मिली है । 1995 में मायावती के मुखयमंत्ी बननरे के बाद सरे दलित समाज की राजनीतिक-सामाजिक प्लतषठा बहुत
बढ़ी । फिर भी दलित समाज का एक वर्ग उनहें ्छोड़कर चला गया और यह एक बार नहीं तीन बार 2014 , 2017 और 2019 में हो चुका है । तो ्या यह कहा जा सकता है कि दमन सरे मुक्त दिलानरे पर धयान इतना अधिक रहा कि आर्थिक विषमता दूर करनरे का मुद्ा ओझल हो गया ? 2014 के आम चुनाव में मोदी नरे इस कमी को भांप लिया और दलितों को आकांक्षा का सपना दिखाया । सतिा में आनरे के बाद केंद्र सरकार के कायदाकमों और दलित हित की नीतियों
vDVwcj 2021 दलित आं दोलन पत्रिका 17