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क्यों आवश्यक है सामाजिक समरसता ?
डा . विजय सोनकर शास्त्ी
भरी समाज में सामाजिक एक्ता के लिए समरस्ता का होना दन्तां्त
किसरी
आवश्यक है । परीदढ्यों से चले आ रहे सामाजिक दन्यमों के दा्यरों से बाहर आकर और लोगों करी सोच में पररि्तमान से हरी सामाजिक समरस्ता को हासिल दक्या जा सक्ता है । वास्तव में देखा जाए ्तो सामाजिक समरस्ता एक बहुव्यापरी आ्याम है । मानव , पशु-पक्षी , जड़-चे्तन आदि सभरी में सामंजस्य हे्तु समरस्ता अपरिहा्यमा है । मानव समाज निर्माण में संगठन बना्ये रखने के लिए ्यह परम आवश्यक परिस्थिति है । वर्ण , वर्ग , जाद्त , समूह , सदमद्त , संसथा , धर्म , समप्रदा्य , सभ्य्ता , संस्कृति सभरी में अनुवांशिक समरस्ता होने पर हरी समाज का
सिरूप संगठि्त , सुव्यवस्थित एवं समृद्धशालरी बना रह सक्ता है । इस आधार पर संसार में सामाजिक समरस्ता करी अवधारणा एक महत्िपूर्ण एवं विचारणारी्य विष्य है । सामाजिक समरस्ता करी अवधारणा का आधार प्रकृद्त , प्राकृद्तक दन्यम ्तथा प्रकृद्तजन्य विधाओं पर आधारर्त प्राकृद्तक जरीिन-पद्धद्त है क्योंकि जिस प्रकार प्रकृद्त किसरी के साथ भेदभाव नहीं कर्तरी है , उसरी प्रकार से प्रकृद्तजन्य जरीिन- पद्धद्त में भरी भेदभाव का कोई सथान नहीं है । भार्तरी्य लोक-जरीिन में मानव , जरीि-जन्तु एवं प्रकृद्त के संरषिण ्तथा उनका व्यावहारिक सिरूप है । इसलिए इसमें सामाजिक विषम्ताओं का कोई सथान नहीं है ।
बाह्य शसक्त्यों के शासनकाल से पहले
भार्तरी्य समाज में किसरी ्तरह के भेदभाव एवं विषम्ता का अवगुण नहीं था , परन्तु वाह्य शसक्त्यों द्ारा हिनदू समाज को ्तोड़ने के लिए कुचक्र रचे गए ्तथा बल का भरी प्र्योग दक्या ग्या । परिणामसिरूप समाज में उच्च-निम्न का भेदभाव , कुररीद्त्याँ एवं कुप्रथाओं ने जनम दल्या , जिससे पूरा भार्तरी्य समाज विघटि्त होकर कमजोर हो ग्या । इसे पुनः संगठि्त करने के लिए अनेक प्र्यास ्तो हुए , किन्तु प्रदूदष्त मनःस्थिति करी जड़्ता ्तथा अनावश्यक निम्न्ता एवं श्रेष्ठता के अभिमान को समाप्त करके सामाजिक समरस्ता को पूर्णरूपेण स्थापित किए बिना सुधार के प्र्यास किए गए , जिसके परिणाम आंशिक रूप से हरी दह्तकर रहे । अ्तः ि्तमामान में सामाजिक समरस्ता करी प्रस्तावि्त अवधारणा
38 uoacj 2023