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नहीं हो सकतीं । सहानुभूति और स्वानुभूति का अंतर रहरेगा ही । पुरुष के िरेखन में सहानुभूति ही आएगी , स्वानुभूति तो सत्री-िरेखन में आएगी । इसमें संदरेह नहीं कि सुशीला टाकभौररे , रजनी तिलक , रजतरानी मीनू , हरेमलता महीश्वर , अनीता भारती , रजनी दिसोदिया , कौशल प्वार , नीलम , पूनम तुषामड़ , राधा ्वा्मीलक , जैसी सत्री-चरेतना की सशकत िरेलखकाएं दलित साहितय को समृद्ध कर रही हैं ।
मुख्यधारा का सादहत् बनने की प्रदक्या में दलित सादहत्
अभी तो दलित साहितय हिंदी साहितय के सामानांतर ही चल रहा है । िरेलकन ्वह मुखयिारा का साहितय बननरे की प्लक्या में भी है । ्वत्षमान हिंदी साहितय ब्राह्मर्वादी है , जबकि दलित साहितय मौलिक समाज्वादी ल्वचारधारा का साहितय है । हिंदी की अधिकांश पत्रिकाएँ ब्राह्मर्वादी लोगों के हाथिों में हैं , जो दलित साहितय को नहीं छापतरे । िरेलकन दलित साहितय के ल्वरोध में लिखा हुआ छाप दरेतरे हैं । कुछ पत्रिकाएँ ऐसी भी हैं , जिनमें दलित-ल्वशेषज्ञ के रूप में ब्राह्मणों को छापा जाता है । यह सब प्लतक्ांलत का िरेखन है , जो दलित साहितय को मुखयिारा में प्लतसष्ठत होनरे सरे रोकता है । इस खरेि को समझना होगा । इसरे बाबासाहरेब नरे अपनरे ‘ क्ांलत और प्लतक्ांलत ’ शीर्षक िरेख में ल्वसतार सरे समझाया है । भारत में क्ांलत की रफ़तार धीमी होती है , किन्तु प्लतक्ांलत की रफतार बहुत तरेज होती है , कयोंकि उनके हाथिों में सत्ा होती है , साररे संसाधनों और पूंजी की ताकत होती है , जबकि क्ांलत करनरे ्वािरे साधनहीन होतरे हैं , ्वरे चंदा करके पत्रिकाएं निकालतरे हैं , जो एकाध साल चलनरे के बाद आलथि्षक कठिनाइयों के कारण बंद हो जाती हैं । प्लतक्ांलत की धारा के लोग अकसर ब्राह्मण होतरे हैं और प्गतिशील या दलित होनरे का मुखौटा लगाए रहतरे हैं । ्वरे हमाररे ही बीच घुसपैठ करतरे हैं , और हमारी नादानी के कारण हमसरे ही सममालनत होतरे रहतरे हैं । जिस दिन दलित िरेखक ब्राह्मणों की इस प्लतक्ांलत को समझ जायेंगरे , उसी दिन सरे दलित साहितय
मुखयिारा का साहितय बननरे लगरेगा ।
दलित सादहत् और सादहत्कारों के साथ भेदभाव
जयप्काश कर्दम नरे अपनरे उपन्यास ‘ छपपर ’ का ल्वमोचन नाम्वर सिंह सरे कर्वाया थिा । पर नाम्वर सिंह की एक भी टिपपरी ‘ छपपर ’ पर नहीं है । डा . तुलसी राम ठाकुर नाम्वर सिंह के पैर छूतरे थिरे , पर आप नाम्वर सिंह का कोई िरेख तुलसी राम के ककृलतत्व पर दिखा सकतरे हैं ? जब ‘ मुर्दहिया ’ पर आयोजित काय्षक्म में नाम्वर सिंह को बोलनरे के लिए बुलाया गया , तो उन्होंनरे अपनी पूरी सपीच में एक बार भी तुलसीराम का नाम नहीं लिया । ‘ िरेखक की ककृलत ... िरेखक की ककृलत ’ कहतरे रहरे । यह उस स्वर्ण साहितयकार का व्यवहार है , जिनके तुलसी राम जी पैर छूतरे थिरे । एक और उदाहरण दरेता हूँ । मैं ‘ जन संस्कृति मंच ’ की राष्ट्रीय कारिणी में थिा , उसी में रामजी राय भी थिरे , जिनको मुझरे जोड़नरे का श्रेय जाता है । उसमें मैनरेजर पाण्डेय भी थिरे , जो अधयक् भी चुनरे गए थिरे । तब तक मरेरी कई किताबें आ चुकी थिीं । िरेलकन ‘ जन संस्कृति मंच ’ के किसी भी स्वर्ण िरेखक नरे , न रामजी राय नरे , और न मैनरेजर पाण्डेय नरे , मरेरी किसी किताब पर कोई चर्चा कभी नहीं की । और जब मैंनरे ‘ जन संस्कृति मंच ’ के काय्षक्मों में जाना बंद कर दिया , तो किसी भी अधयक् या स्वर्ण सदसय नरे हमाररे न जानरे की ्वजह को जाननरे की कभी कोशिश नहीं की । असल में हम जिस जालत्वाद सरे लड़ रहरे हैं , और जिसरे खतम करना चाहतरे हैं , ्वह अधिकांश स्वर्ण साहितयकारों में जड़ जमाए बैठा हुआ है । ्वरे एक सीमा तक ही दलित की बात करतरे हैं , एक सीमा तक ही कबीर और आंबरेडकर का समथि्षन करतरे हैं , िरेलकन ्वास्तव में ्वरे तुलसीदास और गाँधी के ही समथि्षक हैं । ्वरे नहीं चाहतरे कि जाति व्यवस्था मिट़े , कयोंकि उनके प्ार उसी में बसतरे हैं । उसी के कारण ्वरे उच्च बनरे हुए हैं , और उसी के कारण हम उनकी नजरों में नीच हैं । फिर ्वरे दलित को सममान कैसरे दरे सकतरे हैं ?
दलित समाज की उप-जातियों में ब्ाह्मणवाद़ी व्वस्ा
यह सच है कि दलित समाज की उपजातियों में एकता नहीं हैं , उनके बीच ऊँचनीच की ब्राह्मर्वादी व्यवस्था कायम है , िरेलकन यह कहतरे हुए हम भूल जातरे हैं कि दलित समाज उसी हिंदू समाज सरे निकला है , जो जातिव्यवस्था पर खड़ा है । एक बात यहाँ और भी गौरतलब है , और ्वह यह कि जातियां के्वि दलित समाज में ही हैं , लद्ज समाज में जातियां नहीं हैं , ्वहाँ ्वर्ण हैं । ब्राह्मण , क्त्री और ्वै्य समाजों में कुल और गोत्र हैं , और उनमें समान गोत्र और समान कुल में ल्व्वाह नहीं होता है । ्वहाँ शुकि , लमश् , पाण्डेय , शर्मा आदि आपस में ल्व्वाह करतरे हैं , इसलिए ्वरे एक ्वग्ष बनकर रहतरे हैं , इसकी तरह क्त्री और ्वै्य भी अपनरे सरे लभन् गोत्र में ल्व्वाह करतरे हैं और ्वग्ष के रूप में रहतरे हैं । किन्तु दलित एक ्वग्ष नहीं है , ्वह हजारों जातियों का समूह है , जो अपनी-अपनी जातियों में ही ल्व्वाह करतरे हैं , इसलिए उनमें एक दलित ्वग्ष का निर्माण नहीं हो पाया । बाबासाहरेब नरे
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