इसमें संदरेह नहीं । कल्वता , कहानी , उपन्यास , निबन्ध , आलोचना आदि कई ल्विाओं में दलित साहितय आज ल्वकास कर रहा है , िरेलकन अधिकांश की दिशा सपष्ट नहीं है , उसमें एक भटका्व दिखाई दरे रहा है । नए दलित िरेखकों में इतिहास और परमपरा का बोध है । परिणामस्वरूप , कुछ गैर-दलित , ल्वशरेर रूप सरे ब्राह्मण िरेखक दलितों पर लिखकर दलित िरेखकों के बीच समादृत हो रहरे हैं । समादृत हो रहरे हैं , कोई बात नहीं , कयोंकि दलित साहितय कोई भी लिख सकता है , पर ्वरे नरेतृत्व भी कर रहरे हैं , यह दुखद है । यह हमाररे इतिहास और परमपरा के ल्वरुद्ध है । कबीर और रैदास साहरेब नरे ब्राह्मण का नरेतृत्व स्वीकार नहीं किया , और बाबासाहरेब डा . आंबरेडकर नरे भी दलित आन्दोलन का नरेतृत्व किसी गैर-दलित को नहीं दिया थिा । हमें इस परमपरा को नहीं तोड़ना है । यह हमाररे सौंदर्यशासत्र की परमपरा है , किसी गैर-दलित का नरेतृत्व अगर हम स्वीकार करेंगरे , तो ्वह हमारी सौंदर्य-चरेतना को बदल सकता है । यह एक बड़ी चुनौती है , दलित साहितय के सामनरे । स्वाल यह भी है कि यह चुनौती कैसरे पैदा हुई ? मुझरे इसके पीछ़े अधययन की समसया लगती है । आज के अधिकांश नए दलित िरेखक इतिहास और परमपरा को पढ़कर नहीं आए हैं , उन्होंनरे डा . आंबरेडकर को भी ठीक सरे नहीं पढ़ा है , ्वरे अगर डा . आंबरेडकर की ही सारी रचनाओं को पढ़ लें , तो मुझरे ल्व््वास है कि ्वरे एक नई चरेतना और ऊर्जा सरे भर जायेंगरे । कोई चुनौती फिर परेश नहीं आएगी । कोई नरेतृत्व उसरे भटका नहीं सकेगा ।
सतत प्रवाहित प्राऱीन परंपरागत धारा
दलित साहितय और अम्बेडकर्वादी साहितय दरेखनरे में एक लगता है , पर , दोनों एक है नहीं । अलग-अलग हैं । आंबरेडकर्वादी साहितय की अ्विारणा डा . तरेज सिंह नरे दी थिी । ्वह मार्क्सवादी साहितय सरे प्भाल्वत थिरे , और उसकी प्लतलक्या में आंबरेडकर्वादी साहितय रखना चाहतरे थिरे । मैं उनकी इस अ्विारणा सरे असहमत
थिा । इस पर मरेरा एक िरेख भी छपा है । दरअसल जब हम आंबरेडकर्वादी साहितय कहतरे हैं , तो हम दलित साहितय का दायरा सीमित कर दरेतरे हैं और आंबरेडकर सरे पहिरे और बाद की दलित चिंतन-धारा सरे कट जातरे हैं । दलित साहितय का उद्भव या जन्म न तो डा . आंबरेडकर सरे शुरू हुआ है , और न डा . आंबरेडकर पर खतम होता है । इसकी सुदीर्घ परमपरा है , जिसमें पूरी अ्वैदिक धारा समाहित है । कबीर और रैदास साहरेब ही नहीं , बल्क उनसरे भी पहिरे के समतामूलक समाज के स्वप्नदशथी , लश्पकार और दार्शनिक इसके आधार-सतमभ हैं , यह परमपरा डा . आंबरेडकर के आन्दोलन और चिंतन सरे चरेतनशील और ऊजा्ष्वान हुई है और आगरे भी यह ्वर्णव्यवस्था के समूल-नाश में सभी भा्वी दलित-बहुजन नायकों सरे प्रेरणा िरेती रहरेगी । हिंद़ी दलित सादहत् में स्त़ी-विमर्श का अभाव नहीं
ऐसा माना जाता है कि हिंदी दलित साहितय में दलित सत्री ल्वमर्श का अभा्व होता है । असल में यह दलित शिक्ा सरे जुड़ा हुआ मामला है । आज़ादी के पचास साल गुजर जानरे के बाद भी
दलित जातियों में अशिक्ा भयानक सतर पर थिी । गां्वों में तो स्थिति और भी बदतर थिी । शहरों में यह हाल थिा कि पूरी-पूरी बससतयों में गिनती के एक-दो परर्वार ही अपनरे बच्चों को पढ़ानरे का साहस कर पातरे थिरे , ्वो भी लड़कों को , लड़कियों को फिर भी नहीं पढ़ातरे थिरे । लड़के पहिरे पढ़़े और लड़कियां बहुत बाद में । इसरे गरीबी कह लीजिए , या पुरुर्वादी सोच कह लीजिए या कुछ भी , पर सच यही है कि शिक्ा का प्सार पुरुषों में पहिरे हुआ , इसलिए साहितय में भी दलित पुरुष ही पहिरे आए । ससत्रयां बाद में आईं । िरेलकन फिर भी यह आरोप पूरी तरह सच नहीं है कि हिंदी दलित साहितय में सत्री-ल्वमर्श का अभा्व है । अनरेक दलित कहानियों में सत्री-ल्वमर्श मौजूद है । ओमप्काश ्वा्मीलक की ‘ अममा ’, जयप्काश कर्दम की ‘ सांग ’, कुसुम ल्वयोगी की ‘ और ्वह पढ़ गई ’ सत्री-ल्वमर्श की ही कहानियां हैं । अजय ना्वरिया नरे तो सत्री-ल्वमर्श की कई कहानियां लिखी हैं । हालाँकि यह सत्री-ल्वमर्श उस सतर का नहीं है , जो दलित िरेलखकाओं के स्वयं के िरेखन में उभरा है , पर हम यह नहीं कह सकतरे कि ्वहाँ एकदम अभा्व है । अवश्य ही पुरुष और सत्री-चरेतना की दृष्टियाँ समान
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