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आदिवासी समाज में विकास प्रकिया को गति देने की आवश्यकता
गणि राजेनद्र विजय
वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी क्वडमबना है क्क आक्दवासी समाज की आज कई समस्या्यें से क्घरा है । हजारों वरषों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आक्दवाक्स्यों को हमेशा से दबा्या और कुचिला जाता रहा है क्जससे उनकी क्जत्दगी अभावग्सत ही रही है । केंद्र सरकार आक्दवाक्स्यों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बज्ट में करती है । इसके बाद भी उनकी आक्थ्यक स्थिति , जीवन सतर में कोई बदलाव नहीं आ्या है । सवासथ्य सुक्वधाएं , पीने का साफ पानी आक्द मूलभूत सुक्वधाओं के क्लए वे आज भी तरस रहे हैं ।
जल , जंगल , जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आक्दवाक्स्यों को अपनी भूक्म से बहुत लगाव होता है , उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती है , उनकी मा्टी एक तरह से सोना उगलती है । जनसंख्या वृक्द्ध के कारण भूक्म की मांग में वृक्द्ध हुई है । इसीक्ल्ये बाहरी लोगोें ने आक्दवासी क्ेरिों में घुसपैठ क्क्या है क्जससे भूक्म अधिग्रहण काफी हुआ है । आक्दवाक्स्यों की जमीन पर अब वे खुद मकान बना कर रह रहे हैं , ककृक्र के साथ-साथ वे ्यहाँ व्यवसा्य भी कर रहे हैं । भूक्म हसतांतरण एक मुख्य कारण है क्जससे आज आक्दवाक्स्यों की आक्थ्यक स्थिति द्यनी्य हुई है । इस तरह की शसथक्त्यां आक्दवासी समाज के अशसततव और उनकी पहचिान के क्लए खतरा बनती जा रही है । आज बड़़े ही सूक्म तरीके से इनकी पहचिान क्म्टाने
की राजनीक्तक साक्जश चिल रही है । आपको ्यह जानकर आ्चि ्य होगा क्क आज भी क्वमुकत , भ्टकी बंजारा जाक्त्यों की जनगणना नहीं की जाती है । तर्क ्यह क्द्या जाता है क्क वे सदैव एक सथान पर नहीं रहते । आक्दवाक्स्यों की ऐसी स्थिति तब है जबक्क भारत के सवषोच् त््या्याल्य ने आक्दवासी को भारत का मूल क्नवासी माना है लेक्कन आज वे अपने ही देश में परा्यापन , क्तरसकार , शोषण , अत्याचिार , धर्मान्तरण , अक्शक्ा , सामप्रदाक््यकता और सामाक्जक एवं प्रशासक्नक दुर्दशा के क्शकार हो रहे हैं । आक्दवासी वर्ग की मानवी्य गरिमा को प्रक्तक्दन तार-तार क्क्या जा रहा है । हजारों आक्दवासी क्दलली ्या अत््य जगहों पर रोजगार के क्लए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शाक्मल नहीं क्क्या जाता है , न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वो्टर होते हैं । अर्थात इन्हें भारती्य नागरिकता से भी वंक्चित रखा जाता है । आक्दवाक्स्यों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अक्धकार भी क्छन गए इतना ही नहीं उन्हें मूल लोकतांत्रिक अक्धकार देश की नागरिकता से भी वंक्चित क्क्या जा रहा है ।
आक्दवासी समाज की अपनी एक पहचिान है क्जसमें उनके रहन-सहन , आचिार-क्वचिार एक जैसे ही होते हैं । इधर बाहरी प्रवेश , क्शक्ा और संचिार माध्यमों के कारण इस ढांचिे में भी थोड़ा बदलाव जरूर आ्या है । देश के क्वक्भन्न आक्दवासी क्ेरिों की समस्याएं थोड़ी बहुत अलग हो सकती है क्कत्तु बहुत हद तक ्यह एक
समान ही होती है । वैसे वरषों से शोक्रत रहे इस समाज के क्लए पररशसथक्त्यां आज भी कष्टप्रद और समस्या्यें बहुत अक्धक हैं । ्ये समस्या्यें प्राककृक्तक तो होती ही है साथ ही ्यह मानवजक्नत भी होती है ।
आक्दवाक्स्यों के क्लए ऋणग्सतता की समस्या सबसे जक््टल है क्जसके कारण जनजाती्य लोग साहूकारों के शोषण का क्शकार होते हैं । आक्दवासी लोग अपनी गरीबी , बेरोजगारी , भुखमरी तथा अपने द्यनी्य आक्थ्यक स्थिति के कारण ऋण लेने को मजबूर होते हैं , क्जसके कारण दूसरे लोग इनका फा्यदा उठाते हैं । क्कस तरह ठ़ेकेदारों तथा अत््य लोगों से सीधे संपर्क के कारण समसत भारती्य जनजाती्य जनसंख्या ऋण के बोझ से दबी हुई है । देश में ‘ गरीबी ह्टाओ ’ जैसे का ्यरिम भी बने , मगर उसका
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