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' न कोई जन्म से शूद्र है , न कोई जन्म से ब्ाह्मण '
आर . विक्रम सिंह
धर्म-संस्कृक्त के क्वकास एवं संरक्ण और धर्म को जीवंत बनाए रखने से संबंक्धत कई महतवपूर्ण प्रश्न रह- रहकर उठते हैं । जब बाबासाहब भीमराव आंबेडकर का समरण होता है , तब ऐसे प्रश्न क्वशेष रूप से उठते हैं , लेक्कन बावजूद इसके जाती्य एवं क्ेरिी्य और अगड़़े-क्पछड़़े जैसे खांचिे कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं । स्थिति ्यह है मानों समाज हरसंभव क्दशा से खंक्डत हो जाने के बहाने खोज रहा है । बाबासाहब का जत्मक्दवस सामाक्जक आजादी की समीक्ा का आदर्श अवसर है । माचि्य 1930 को बाबा साहब ने नाक्सक में कालाराम मंक्दर में दक्लत प्रवेश का सत्याग्ह चिला्या था । तब पुजारी रामदास और सथानी्य समर्थ समाज ने दक्लतों का प्रवेश नहीं होने क्द्या । इससे पहले बाबासाहब ने 1927 में महाड़ में जल सत्याग्ह भी चिला्या था । तब जाक्तश्रेषठता का अहंकार समाज पर भारी था ।
बाबासाहब के बाद गांधी जी ही एकमारि नेता थे , क्जत्होंने इस अलगाव के भावी खतरे को पहचिाना और इसे समापत करना अपना क्मशन बना्या । पूना पैक्ट और राजनीक्तक आरक्ण के प्रक्वधान के अलावा दूसरा जो सबसे बड़ा का ्य उन्होंने क्क्या , वह था बाबासाहब को संक्वधान ड्ाफ्ट कमे्टी का अध्यक् बनाना । हम सवतंरि हो गए । हमें बराबरी का लोकतांत्रिक अक्धकार क्मला , मगर सामाक्जक एकीकरण हमारी प्राथक्मकता न बन सका । वीएस ना्यपॉल ने अपनी पुसतक ‘ ए क्मक्ल्यन म्यूक््टनीज ’ में भारत में उत्र से दक्षिण तक क्कतने ही अलगाववादी , आतंकी , नकसली प्रककृक्त के क्वद्रोहों का क्शकार
होते जाक्त वगषों में क्वभाक्जत हो रहे देश का वृत्ांत क्लखा था । ्यक्द जनकल्याणकारी ्योजनाओं और आरक्ण के माध्यम से इस देश के वंक्चित समाज को अवसर क्दए जाने की सोचि न आई होती तो ऐसा वृत्ांत आज भी सामने होता । इसके क्कतने घातक परिणाम होते , इसकी कलपना ही की जा सकती है ।
क्या कभी ्यह सोचिा ग्या है क्क आक्खर हमारे समाज के करीब 75 प्रक्तशत लोग चिेहराक्वहीन रहकर गा्य-भैंस चिराते रहे , लोहार ्या बढ़ई बनकर अपना काम करते रहे , मछली मारकर , मृत जानवरों का चिमड़ा उतारकर ्या महुआ बीनकर जीवन चिलाते रहे , वे क्कसकी ज्य करें ? वे कौन सा इक्तहास पकड़ लें ? संक्वधान से पहले उन्हें मंक्दरों के पास ि्टकने तक नहीं क्द्या ग्या तो वे क्कस धर्म संस्कृक्त की , क्कन ना्यकों की बातें करें ? क्कस पर गर्व करें ? वे तो बरम बाबा , काली कलकत्े वाली तक ही रह गए । गीता , वेद-वेदांत उनके क्लए नहीं थे । शूद्र वर्ण को श्रम और वैश्य वर्ण को धन का माध्यम बना क्ल्या ग्या था । आक्खर इन शोक्रतों को कौन सा धर्म क्द्या ग्या ? कक्थत उच् वणषों को छोड़ दें तो शेष भारती्य समाज के ना्यक कौन हैं ? वे क्कससे प्रेरणा ग्हण करें ? कुछ सम्य पहले तक कोई उन्हें अपने ना्यक उधार देने को भी तै्यार नहीं था । आज सवतत्रि भारत में जब वह समृद्ध हो रहा है तो अपनी धाक्म्यक , सांस्कृक्तक , बौक्द्धक अक्भव्यशकत के क्लए कहां जाए ? क्या क्कसी ने कभी सोचिा है क्क आक्खर महाराणा प्रताप , क्शवाजी महाराज सरीखे भारत के ऐक्तहाक्सक चिरररि हमारे गरीब भारत के सहज ना्यक क्यों
नहीं बन सके ? गरीब तबका कभी बुद्ध को पकड़ता है तो कभी बाबा कबीर , बाबा रैदास को , कभी ज्योक्तबा फुले को तो कभी अभंग भकतों की प्रार्थनाओं को । क्बजली पासी , झलकारीबाई , क्बरसा मुंडा , सुहेलदेव आक्द उनके ना्यक हैं । हमारे पूर्वजों ने उनके क्लए मंक्दर बंद रखे , वे उनके साथ भोजन करने को भी तै्यार नहीं थे ।
आज भी सत्ा की राजनीक्त हमें क्वभाक्जत कर रही है और हमारे अनेक मठाधीश हमें एक
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