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क्वरोध में रचिना करे तब क्या ऐसे साक्हत्य को भी दक्लत साक्हत्य केवल इसक्लए माना जाना चिाक्हए क्क उसकी रचिना एक दक्लत साक्हत्यकार ने की है । इस संदर्भ में कहना ्यही है क्क क्कसी दक्लत साक्हत्यकार के क्लए दक्लत होने की शर्त तो ठीक है क्करंतु ऐसे मानदंडों का होना भी जरूरी है क्जनसे ्यह त्य क्क्या जा सके क्क उसकी कौन-सी रचिना दक्लत साक्हत्य मानी जाएगी और कौन-सी नहीं ?
अक्धकांश दक्लत क्वर्यक क्वमर्शकारों द्ारा ्यह बात उठाई जा रही है क्क केवल दक्लतों द्ारा दक्लतों की जीवन पररशसथक्त्यों पर क्लखा ग्या साक्हत्य ही दक्लत क्वर्यक साक्हत्य है । ्यह एक संकीर्ण और अत्तक्व्यरोधी प्रसथापना है । दक्लतों द्ारा क्लखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका केवल दक्लत जीवन पर क्लखने की शर्त दक्लत क्वर्यक साक्हत्य को केवल दक्लत समाज और दक्लत उतपीड़न के क्चिरिण के दा्यरे में कैद करने की भूल है । इससे दक्लत साक्हत्य न क्सि्फ वैचिारिक न सृजनातमक सतर पर सीक्मत होगा बशलक उसका क्वकास भी कुरंद होगा ।
सवाल ्ये उठता है क्क दक्लत क्वर्यक साक्हत्यकार अपने रचिनाकर्म को केवल जाती्य शोषण तक ही क्यों सीक्मत करे । आज समाज में जाक्त के अलावा भी ऐसी सैंकड़ों समस्याएं हैं क्जनसे दक्लतों को भी दो-चिार होना पड़ रहा है । क्यों गरीबी , भुखमरी , बेकारी , भ्रष्टाचिार और मंहगाई क्कसी दक्लत रचिनाकार के रचिनाकर्म का क्वर्य नहीं हो सकते । क्या इन समस्याओं के चिलते दक्लत समाज के अत््य उत्पीड़ितों से नहीं जुड़ते ? क्यों एक दक्लत साक्हत्यकार अत््य उपेक्षितों की पीड़ा का क्चिरिण अपनी रचिनाओं में नहीं कर सकता ? क्यों एक दक्लत साक्हत्यकार क्बना जाक्तगत संदर्भ क्दए जो क्लखे वह दक्लत साक्हत्य नहीं माना जाना चिाक्हए ? दक्लत साक्हत्यकार क्यों समूचिे आकाश पर नहीं क्लख सकता है ? उसके लेखन और दृष्टि को केवल जाक्त की सीमाओं में कैद करने वाले क्या वासतव में दक्लत साक्हत्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं ।
दक्लतों में साक्हत्य का व्यापक प्रचिार-प्रसार
होने से उनमें सांस्कृक्तक रूझान पैदा होगा और चिेतना बुक्द्ध का क्वकास होगा । क्कत्तु ्यह कहना क्जतना आसान है , इसे का ्यरूप देना उतना ही कक्ठन है । इस समस्या का सामना जनवादी सांस्कृक्तक कक्म्यों को भी करना पड़ रहा है । दक्लत भी इससे अछूते नहीं है । उन्हें सांस्कृक्तक
अधिकांश दलित विषयक विमर्शकारयों द्ारा यह बात उठाई जा रही है कि के वल दलितयों द्ारा दलितयों की जीवन परिस्थितिययों पर लिखा गया साहित्य ही दलित विषयक साहित्य है । यह एक संकीर्ण और अन्तर्विरोधी प्स्ापना है । दलितयों द्ारा लिखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका के वल दलित जीवन पर लिखने की शर्त दलित विषयक साहित्य को के वल दलित समाज और दलित उत्ीड़न के चित्रण के दायरे में कै द करने की भूल है । इससे दलित साहित्य न सिर्फ वैचारिक न सृजनात्मक स्तर पर सीमित होगा बल्कि उसका विकास भी कुं द होगा ।
क्ेरि में आई जड़ता को तोड़ने के क्लए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने पड़ेंगे । पहले तो इसके क्लए उन्हें दक्लतों में क्शक्ा के व्यापक प्रसार की क्दशा में काम करना पड़़ेगा । अपने लेखन के
दक्लतों में क्शक्ा के व्यापक प्रसार की क्दशा में काम करना पड़़ेगा । अपने लेखन के दक्लतों में प्रसार के क्लए क्वक्भन्न सृजनातमक तरीके इसतेमाल करते हुए लोगों के बीचि जाना पड़़ेगा । दक्लत क्वचिार और साक्हत्य संबंधी परि-पत्रिकाएं व्यापक पैमाने पर क्नकालनी होंगी । मुख्यधारा से अलग दक्लत साक्हत्य प्रकाशन की अपनी व्यवसथाएं का्यम करनी होंगी ।
इससे इंकार नहीं क्क्या जा सकता क्क जाक्त भारती्य समाज की एक क्टु सच्ाई रही है और वह अब भी भले सामंतवादी क्वककृत मानक्सकता के रूप में समाज में उपशसथत है । इसमें भी संदेह नहीं है क्क वर्णव्यवसथा के कारण ही सामाक्जक- आक्थ्यक दासता दक्लतों को क्वरासत के रूप में क्मली है । क्जसे वे सक्द्यों से झेलते आ रहे हैं और आज भी क्कसी न क्कसी रूप में झेल रहे हैं । दक्लतों को सामाक्जक सममान और बराबरी की बजा्य क्जतनी घृणा और क्जललत क्मली है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता है । क्करंतु आज भारती्य समाज क्वकास के क्जस मुकाम पर खड़ा है वहां सामंतवादी शक्तियों और दक्लत शोषण के उनके हक्थ्यार काफी कमजोर पड़ रहे हैं । दक्लत क्वर्यक क्वमर्शकारों को अपने दोसतों और दु्मनों की पहचिान इसी संदर्भ में करनी चिाक्हए ।
दक्लतों के सामने आज जाक्त के अलावा गरीबी , अक्शक्ा , भूक्महीनता , महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं क्जनका भौक्तक आधार इस व्यवसथा में क्नक्हत है । सो , केवल रिाह्मणवादी शक्तियों को अपना शरिु बताना दक्लतों के क्लए काफी नहीं है । पूंजीवादी-नव साम्ाज्यवादी व्यवसथा ताकतवर दु्मन के रूप में उनके सामने मुंह बा्ये खड़ी है क्जसका आकलन दक्लत आंदोलन के क्लए एकदम अक्नवा्य्य है । पूंजीवादी व्यवसथा में पूंजी और श्रम के स्थायी अत्तक्वरोध के कारण उनका दोसताना संबंध सर्वहारा संघर्ष से बनना दक्लत आंदोलन को व्यापक बनाएगा । समपूण्य समाज की मुशकत के आंदोलन में ही दक्लत आंदोलन की सार्थकता होगी उससे अलग होकर नहीं । �
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