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उसे गुरिलला युद्ध में पारंगत बनाया । इसी वजह से वह 12 वषषों तक पकड़ा नहीं जा सका । ्टं्टया चीते की फूर्ति के साथ अंग्ेजी सैनय छावनियों में घुसकर उनका खजाना लू्ट लिया करता था । फूर्ति इतनी कि अंग्ेज मानने लगे कि एक नहीं चार ्टं्टया हैं जो एक ही समय में चार सिानों पर खजाने लू्ट लेते हैं । लू्टे गये खजाने की अंतिम पाई तक गरीबों और जरूरतमंदों को दे दी जाती थी । इसीलिये ्टं्टया भील की गिरफतारी की खबर प्रमुखता से 10 नवंबर , नयूयॉर्क ्टाइमस , 1889 के अंक में प्रकाशित हुयी जिसमें उनहें भारत के रॉबिन हुड के रूप में वर्णित किया गया था । पुलिस ने मुखबिरी के चलते जालसाजी से उसे गिरफतार कर लिया । मुखबिर को तो ्टं्टया ने मार डाला । सखत पुलिस पहरे और भारी लोहे की जंजीरों से बांधकर जबलपुर की जेल में उसपर अमानवीय अतयाचार किये गये । सत् नयायालय , जबलपुर , ने 19 अक्टूबर 1889 के दिन फांसी की सजा सुनाई और 4 दिसंबर को फांसी दे दी गयी । अंग्ेंजों ने भयवश फांसी के बाद वीर बलिदानी ्टं्टया के शव को चुपके से रात के अंधेरे में इंदौर के महू कसबे के जंगलों में खंडवा रेल मार्ग पर पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया । वहीं उसकी समाधि मंदिर है जहां आज भी सभी रेल चालक रूक कर उसे शधदासुमन अर्पित करते हैं ।
3 . गोविन्द गुरु और मानगढ़ के शहीद
गुजरात से आकर राजपुताना की डूंगरपुर स्टे्ट के गाँव बड़ेसा ( बंसिया ) में बसे बंजारा परिवार में 20 दिसमबर 1858 को एक बालक पैदा हुवा जिसका नाम गोविंदा रखा गया । अपनी छो्टी उम्र में ही गोविंदा इदर , पालनपुर , सिरोही , प्रतापगढ़ , मंदसोर , मालवा और मवाद के दूर तक गाँवो में घूम घूम कर गोविंदा ने आदिवासियों को बेहद निर्धन गरीब हालत को देखा । तो उसके मन में समाज सुधार की भावना जाग्रत हुई । उसी काल में राजसिान में प्रवास कर रहे आर्यसमाज के प्रवर्तक एवं वेदों के महाविद्ान सवामी दयाननद से उनकी भें्ट हुई । सवामी
दयाननद के आदेशानुसार उनहोंने उनके समीप रहकर उनहोंने यज्-हवन एवं वेदों की शिक्ा प्रापत की । सवामी दयाननद का उद्ेशय उनके माधयम से बंजारा कुरीतियों , पाखंडों और नशे आदि अनधलवशवास में फंसा हुआ था । उसे छुड़वाकर उनमें जाग्लत लाना था । बंजारा समाज में उनहें अपना गुरु बनाया गया । तब से उनका नाम गोविनद गिरी हुवा । आपने बंजारा समाज में समाज सुधार का कार्य आरमभ किया जो अंग्ेजों को नहीं सुहाया । अंग्ेज भारतीयों को पिछड़ा और पीड़ित ही रखना चाहते थे । उनहें अनेक प्रकार से रोकने की कोशिशे की गई । आदिवासी राजसिान मेँ डूँगरपुर , बाँसवाड़ा और गुजरात सीमा से लगे पँचायतसमिति गाँव भुकिया
( वर्तमान आननदपुरी ) से 7 किलोमी्टर दूर ग्ाम पँचायत आमदरा के पास मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवमबर , 1913 ( मार्ग शीर्ष शुकला पूर्णिमा वि . स . 1970 ) को गोविनद गुरू का जनमलदन बनाने के लिए बंजारा वनवासी समाज एकत् हुआ । अंग्ेजों ने इसे राजद्रोह का बहाना बनाकर मानगढ़ के पहाड़ी को घेर लिया । गोविनद गुरु वहां यज् , हवन एवं धमयोपदेश करने के लिए आये थे । अंग्ेज कर्नल शै्टन्व की अगुवाई में निहतिे बंजारों पर गोलीबारी कर जनसंहार को अंजाम दिया गया । मानगढ़ पहाड़ी पर विदेशी हुकूमत के इशारे पर गोविनद गुरु के नेत्रतव में जमा देशभकत सपूत गुरुभकतों पर तोपों और
बंदूकों की गोलियों से किए गए हमले के बाद मानगढ़ की पहाड़ी के रकतस्ान के मंजर का वर्णन रोंग्टे खड़़े करता है । सरकारी आंकड़ो के अनुसार 1503 आदिवासी शहीद हुए । कुछ अनय सूत्ों के अनुसार यह संखया बहुत अधिक थी । गोविनद गुरु व उनके शिषयों को गिरफतार कर लिया गया । उनको फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन संभावित जनविद्रोह को देखते हुए बीस साल की सजा में बदल दिया गया । उच्च नयायालय में अपिल पर यह अवधि 10 वर्ष की गई । लेकिन बाद मे 1920 में रिहा कर उन पर सुँथरामपुर ( संतरामपुर ), बांसवाड़ा , डुँगरपुर एवं कुशलगढ़ रियासतों में प्रवेश पर प्रतिबनध लगा दिया गया । मानगढ़ की घ्टना को राजसिान
का जलियांवाला बाग भी कहा जाता है ।
अंग्ेजों के अतयाचारों के ये केवल तीन प्रचलित ऐतिहासिक घ्टनाएँ हैं । ऐसे हज़ारों सुनी और अनसुनी घ्टनाएं इतिहास के गर्भ में सुरलक्त हैं । अंग्ेजों ने सभी पर अतयाचार किया । जिन पर अतयाचार हुआ वो ब्ाहण या दलित या आदिवासी नहीं थे अपितु भारतीय थे । वो सभी अपने थे और अंग्ेज पराये अतयाचारी शासक थे । आप इस सतय इतिहास को कभी बदल नहीं सकते । इन तथयों की अनदेखी कर अंग्ेजों को शेषठ और अपने राजाओं को निककृष्ट बताने वाले इन अवसरवादी राजनीतिज्ों को आप केवल देश-विरोधी नहीं तो कया कहेंगे । �
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