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दलित-मुस्लिम एकता की जमीनी हकीकत

डॉ क्ववेक आर्य vk

जकल देश में दलित राजनीति की चर्चा जोरों पर है । इसका मुखय कारण नेताओं द्ारा दलितों का हित करना नहीं अपितु उनहें एक वो्ट बैंक के रूप में देखना हैं । इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी दलितों को लुभाने की कोशिश करती दिखती है । अपने आपको सेकयुलर कहलाने वाले कुछ नेताओं ने एक नया जुमला उछाला है । यह जुमला है दलित मुससलम एकता । इन नेताओं ने यह सोचा कि दलितों और मुससलमों के वो्ट बैंक को संयुकत कर दे दे तो 35 से 50 प्रतिशत वो्ट बैंक आसानी से बन जायेगा और उनकी जीत सुलनसशचत हो जाएगी । जबकि सतय विपरीत है । दलितों और मुससलमों का वो्ट बैंक बनना असंभव हैं । कयोंकि जमीनी सतर पर दलित हिनदू समाज सदियों से मुससलम आकांताओं द्ारा प्रताड़ित होता आया हैं ।
1 . मुसलमानों ने दलितों को मैला ढोने के लिए बाध्य किया
भारत देश में मैला ढोने की कुप्रथा कभी नहीं थी । मुससलम समाज में बुकके का प्रचलन था । इसलिए घरों से शौच उठाने के लिए हिंदुओं विशेष रूप से दलितों को मैला ढोने के लिए बाधित किया गया । जो इसलाम सवीकार कर लेता था । वह इस अतयाचार से छू्ट जाता था । धर्म सवालभमानी दलित हिंदुओं ने अमानवीय अतयाचार के रूप में मैला ढोना सवीकार किया । मगर अपने पूर्वजों का धर्म नहीं छोड़ा । इनमें अनेक हिनदू राजपूत भी थे । फिर भी अनेक दलित प्रलोभन और दबाव के चलते मुसलमान बन गए ।
( सनदभ्व- सवामी शद्धानंद जी का लेख , उर्दू तेज़ समाचारपत् , प्रषठ 5 , 5 मई 1924 )
2 . इलिाम स्ीकार करने के बाद भी दलितों को बराबरी का दर्जा नहीं मिला । दलितों को इसलाम सवीकार करने के बाद
भी बराबरी का दर्जा नहीं मिला । इसका मुखय कारण इसलालमक भेदभाव था । डॉ अमबेडकर इसलाम में प्रचलित जातिवाद से भली प्रकार से परिचित थे । वे जानते थे कि मुससलम समाज में अरब में पैदा हुए मुससलम ( शुद्ध रकत वाले ) अपने आपको उच्च समझते है और धर्म परिवर्तन कर मुससलम बने भारतीय दूसरे दजजे के माने जाते हैं । अपनी पुसतक पाकिसतान और भारत के विभाजन , अमबेडकर वांगमय खंड 15 में उनहोंने सपष्ट लिखा है-
१ . ‘ अशरफ ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान ( प ) सैयद , ( पप ) शेख , ( पपप ) पठान , ( पअ ) मुगल , ( अ ) मलिक और ( अप ) मिर्ज़ा । २ . ‘ अज़लफ ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान इसलिए जो दलित मुससलम बन गए वे दूसरे दजजे के ‘ अज़लफ ’ मुससलम कहलाये । उच्च जाति वाले ‘ अशरफ ’ मुससलम नीच जाति वाले ‘ अज़लफ ’ मुसलमानों से रो्टी-बे्टी का रिशता नहीं रखते । ऊपर से शिया-सुन्नी , देवबंदी- बरेलवी के झगड़ों का मतभेद । सतय यह है कि इसलाम में समानता और सदभाव की बात करने और जमीनी सच्चाई एक दूसरे के विपरीत थी । इसे हम हिंदी की प्रलसद् कहावत चौबे जी गए थे छबे जी बनने दुबे जी बन कर रह गए से भली भांति समझ सकते है ।
3 . दलित समाज में मुसलमानों के विरुद्ध प्रतिक्रिया
दलितों ने देखा कि इसलाम के प्रचार के नाम पर मुससलम मौलवी दलित बससतयों में प्रचार के बहाने आते और दलित हिनदू युवक-युवतियों को बहकाने का कार्य करते । दलित युवकों को बहकाकर उनहें गोमांस खिला कर अपभ्रष्ट कर देते थे और दलित लड़कियों को भगाकर उनहें किसी की तीसरी या चौथी बीवी बना डालते थे । दलित समाज के होशियार चौधरियों ने इस समसया से छु्टकारा पाने के लिए एक वयावहारिक युसकत निकाली । उनहोंने प्रलतलकया रूप से दलितों ने सूअरों को पालना शुरू कर दिया था । एक सुअरी के अनेक बच्चे एक बार में जनमते । थोड़े समय में [ पूरी दलित बसती में सूअर ही सूअर दिखने लगे । सूअरों से मुससलम मौलवियों को विशेष चिढ़ थी । सूअर देखकर मुससलम मौलवी दलितों की बससतयों में इसलाम के प्रचार करने
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