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आर्य वीर रामचन्द्र जी कठु आ जम्ू कश्ीर
लेखक : - स्वामी ओमानंद जी महाराज पुस्तक : - आर्य समाज के बलिदान प्स्तुतकर्ता : - अमित सिवाहा
भूत भूत को दूर भगा दो , क्िनदू बनो उदार । क्मत्र ! शबद को मेटो , क्मलना भुजा पसार ।।
मेघजाति के उद्धार में अपना प्राण गंवाकर रामचनद्र ने अपना नाम अमर कर लिया है । रियासत जममू जिला कठुवा , तहसील हीरानगर में ला० खोजशाह महाजन खजाञ्ी के घर में १६ आषाढ़ समवत् १९५३ के दिन इनका शुभ जनम हुआ । इनके ८ छो्टे भाई और १ बहन है । आप सबसे बड़े थे । आपने मिडिल तक शिक्ा प्रापत की थी । अपनी शेणी में सदा प्रथम रहते थे । रियासत के दफतरों की कार्यवाही डोगरी भाषा की जगह उर्दु में हो जाने से खजाञ्ी का काम पिता की जगह पुत् को मिला ।
रामचनद्र की प्रवृत्ति बचपन से धार्मिक थी । अखबार पढ़ने का खूब शौक था । आर्यसमाज
की सतसंगति ने उस पर खासा रंग चढ़ा दिया था । खजाञ्ी बनने पर उनकी बदली बसोहली हो गई । वहां दो वर्ष आर्यसमाज की बड़ी सेवा की । पुनः कठुवा बदलकर चले गये । यहां आर्यसमाज का प्रचार करना मौत के मुख में पड़ना था । परनतु उनहोंने निर्भयता से समाज का काम किया और अछूत जातियों की शुद्धि भी की । इससे विरोध का तूफान मच गया , इस कारण उनहें १९१८ में सामबना में तबदील कर दिया गया । वहां जाते ही आर्यसमाज कायम किया । एनफलुऐंजा की देशवयापी बीमारी में सेवासमिति खोलकर बड़ी सेवा की । राजपूत ब्ाहणों के विरोध का अकेला मुकाबला करते आर्यसमाज का उतसव बड़ी सफलता से समपन्न किया ।
इनहें कांग्ेस से भी बड़ा प्रेम था , सदा शुद्ध
खद्र पहनते थे । कांग्ेस के सालाना जलसे में ८-६ साल तक जाते रहे । मार्शलला के दिनों में पंजाब की खबरें दूसरे प्रानतों में गुपतरीति से भेजते थे । सामबा ' में आप ' कौमी सेवक ' कहे जाते थे । १९१७ की अम्रतसर कांग्ेस में जाने की जब तहसीलदार ने इजाजत न दी तब आपने नौकरी से इसतीफा दे दिया । उनकी दृढ़ता देखकर तहसीलदार ने उनहें जाने की आज्ा दे दी ।
१९२२ में सामबा से अखनूर बदली हो गई । यहां के लोग छूतछात के बड़े पक्पाती थे । मेघजाति से बड़ी घ्रणा करते थे । रामचनद्र जी ने उनके उद्धार और उन्नति के लिए एक धनी सज्जन का मकान लेकर मेघ बालकों के लिए पाठशाला खोल दी । यह पाठशाला ही इनकी महाधनता की नींव थी । तहसील का काम करने
26 ekpZ 2023