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दलित विमर्श के नाम पर हिन्दू समाज को तोड़ने की कोशिश
पहली आम जनगणना 1881 में जातियों और प्रजातियों की सदूची बनी । 1891 में उच्च और निम्न जाति के रूप में वगगीकरण हुए । 1901 में उच्च जाति हिन्ुओ ंने जाति उल्ेख का तीव्र विरोध किया ।
डॉ . राजू रंजन प्रसाद
के गां्व में भिन्न जाति के लोगों के लिए बोलरी-बािरी के मुहा्वरे भारत
और शब्दावलियां अलग-अलग हैं । अलग-अलग जातियों के लोगों को संबोधित करने के लिए अलग-अलग तरह करी शब्दावलरी व्यवहृत होतरी है । गां्व करी पाठशाला , जहां पर ब्ाह्मण लशक्क- ‘ पंडितिरी , ठाकुर लशक्क ‘ बाबू साहब ’ और अनर जातियों के लशक्क ‘ मुंशरीिरी ’ कहकर संबोधित होते हैं तथा उनके लिए अलभ्वादन भरी अलग-अलग हैं । जैसे पंडित िरी के लिए- ‘ पंडत िरी पांय लागरी ’, बाबू साहब के लिए- ‘ बाबू साहब जयशंकर ’ तथा मुंशरी िरी के लिए- ‘‘ मुंशरी िरी नमसते ’। ‘ श्ाद्ध का भोज ’ कल्वता में पंकज कुमार चौधररी ने गां्व के श्ाद्ध- भोज करी एक सच्चरी तस्वरीर खींचरी है । गां्वों में जैसाकि ऐसे मौकों पर हमेशा हरी होता है , सवर्णों ए्वं अवर्णों करी अलग-अलग पांत बैठतरी है । गां्व के स्वर्ण अरबिनद के लिए ‘ अरबिनद बाबू ’ और ‘ राजा भाई िरी ’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है । अ्वर्ण पात्ों के नाम अकलूआ , चट्टूआ , बिसेसरा आदि हैं । जाति ए्वं सामाजिक व्यवसथा
से हमाररी भाषा कैसे प्रभाल्वत होतरी है , कल्व ने इसका खास धरान रखा है । कैसे एक हरी वरसकत , जो खाद्-सामग्री परोसने ्वाला है , अरबिनद बाबू से पूछते हुए ‘ सब्जी ’ श्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ , चट्टूआ , बिसेसरा से पूछते हुए ‘ तरकाररी ’ श्द से हरी काम चलाता है । जो वरसकत भाषा करी गहररी समझ और सं्वेदना रखता है , ्वह इन चरीिों पर गौर करेगा ।
प्रसंग्वश , मुझे निराला करी कृति ‘ बिललेसुर बकरिहा ’ करी याद आ रहरी है । बिललेसुर , जैसाकि आप सब जानते हैं , ल्वललेश्वर है , लेकिन बकररी चराने्वाला ( बकरिहा ) होने करी ्विह से लोगों करी जुबान पर चढ़ नहीं पाता । उपर्युकत बातों के सहारे मैं अपनरी इस बात को प्रसथालपत करने करी कोशिश कर रहा हूं कि गां्वों में ‘ दलित समुदाय ’ जैसरी किसरी चरीि करी अ्वधारणा का स्व्यथा अभा्व देखा जाता रहा है । ्वहां जातियां हरी प्रधान हैं । और बड़ा ल्वभाजन अगर करना चाहें तो ्वह स्वर्ण और अ्वर्ण ( बैक्वडटि ए्वं फॉर्वडटि ) का है । कई साल हुए साल्वत्री बाई के सकूल करी 13 साल करी लड़करी मुकताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकरी भरी मुखर अंत्व्यसतु
जाति-व्यवसथा का अंतल्व्यरोध है । ्वह लड़करी स्वयं मांग जाति से थरी । उसका मानना है कि मुखर अंतल्व्यरोध जाति व्यवसथा का है । दलितों के अंदर भरी महार और मांग में फर्क है । मांग जाति को महार करी तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्रा्त है ।
उस निबंध में दलितों के भरीतर ब्ाह्मर्वादरी सोच के अससतत्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भरी अपने से नरीचे्वाले को दबाते हैं और निषकर्षतः कहा कि इस व्यवसथा ( जाति करी ) में सभरी एक दूसरे को दबा रहे हैं । इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांसकृलतक ए्वं आर्थिक रूप से शोषितों करी एक मुकममल
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