घटनाओं की मौके पर जाकर जाँचि की और अपनी रिपोर्ट में ममता सरकार के उस झूठ को उजागर कर दिया कि राजय में सत्ा प्ायोजित हिंसा की कोई घटना नहीं हुई । आयोग ने यह जांचि कलकत्ा उच्च नयायालय के तनददेश पर की थिीं । हालांकि ममता सरकार ने मानवाधिकार आयोग की जांचि का पुरजोर विरोध किया थिा , लेकिन नयायालय ने उनके तर्क को सुनाने से इंकार कर दिया थिा ।
यदि वह यह काम नहीं करता तो फिर सिवोच्च नयायालय को इस दिशा में पहल करनी चिाहिए , कयोंकि बंगाल में चिुनाव बाद तृणमूल कांग्ेस के कार्यकर्ताओं ने अपने राजनीतिक विरोधियों के उतपीड़न और दमन का जो घिनौना अभियान छेड़ा , वह राजय के माथिे पर कलंक से कम नहीं । इस दौरान लोगों को मौत के घाट उतारा गया और घरों-दुकानों में आगजनी के साथि दुषकम्श भी किए गए । यदि चिुनाव बाद हिंसा के लिए जिममेदार लोगों और उनहें संरक्षण देने वालों
को जवाबदेह नहीं बनाया गया तो फिर बंगाल में राजनीतिक हिंसा का दुषचिरि थिमने वाला नहीं है । इस तथय की अनदेखी नहीं की जानी चिाहिए कि तृणमूल कांग्ेस ने राजनीतिक विरोधियों को डराने-धमकाने और उनहें कुचिलने के मामले में वही तौर-तरीके अपना लिए हैं , जो वाम दलों ने अपना रखे थिे ।
दलितों का उत्ीड़न और भयादोहन
पश्चिम बंगाल में हो रही हिंसा दलित समाज के लिए काल बन गयी है । हिंसा और उतपीड़न के अधिकांश मामलों में आरोपी मुस्लम समुदाय के पाए जा रहे हैं । मुस्लम आरोपियों की संलिपििा पाए जाने के बाद प्ायः प्रासन का रवैयया , मामले को किसी तरह निपटाने और मुस्लम आरोपियों के विरुद्ध सखि कदम उठाने से बचिने तक सीमित रह जाता है । कोई मामला जब तूल पकड़ता है , तब ही मुस्लम आरोपियों
के विरुद्ध कठोर कार्रवाई होने की संभावना बन पाती है । प्श् यह उठता है कि दलितों के विरुद्ध मुस्लम समुदाय सुनियोजित रूप से हिंसा और उतपीड़न की घटनाओं को अंजाम कयों और कैसे दे रहा है ? कया उतपीड़न के पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ छिपा हुआ है ? या फिर दलितों को उतपीतड़ि और डरा-धमका कर धर्मानिरण के लिए बाधय किया जा रहा है ?
मुस्लम अपराधियों से जुड़े मामलों में दलित समाज के कतथिि नेताओं , संगठनों एवं बुद्धिजीवियों का मौन रहना भी आश्चर्य का विषय है । ऐसा लगता है कि दलित उतपीड़न के मामलों में मुस्लमों की संलिपििा में कहीं न कहीं इन सभी की मूक सहमति है । राजय में कानून वयि्थिा की जिस तरह धतज्यां उड़ी हैं , उसके बाद एक पल को लगा कि राजय में कानून का नहीं जंगल का ही शासन चिल रहा है । हिंसा और उतपीड़न के कारन दलित समाज के हजारो लोग दूसरे राजयों में या अनय स्थान पर जाने के लिए बाधय हो गए । राषट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने राजय के कई दलित बाहुलय क्षेत्ों का दौरा किया , तो हिंसा का असली चिेहरा उनहें भी नजर आया । इन दलित बस्ियों तक न तो कोई बड़ा कतथिि दलित नया पहुंचिा और न ही वो सभी लोग जो ्ियं को दलित हितैषी होने का दावा िषगों से करते आ रहे हैं । दलित बस्ियों में जले हुए घर में रहने वाला लोगों का अपराध शायद यही हैं कि उनहोंने तृणमूल की धमकियों को नजरअंदाज करके भाजपा को अपना समथि्शन दिया थिा । उतपीतड़ि दलित और गरीब जनता के पास जांचि के लिए पहुंचिी मानवाधिकार आयोग की टीम को भी कई स्थानों पर तृणमूल के गुंडों का सामना करना पड़ा । देखा जाये तो तृणमूल की राजयवयापी हिंसा और उतपीड़न का सबसे बड़े शिकार दलित और आदिवासी जनता ही बनी है ।
अनदेखी से दलितों में बढ़ती नाराजगी
2011 के जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में दलितों की जनसंखया लगभग 1.85 करोड़ है , जिसमें 80 लाख मतुआ संप्दाय के
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