पुरोधा प्ो . तुलसनीराम
प्रो . तुलसी राम को बहुत बड़ा पुसतक प्रेमी भी बताया जाता है । गमभीर अधयेता के रूप में उनहें बौद्ध साहितय , वेदों , उपनिषदों , समृलतयों , जैन धर्म के साहितय , डॉ . अमबेडकर के ग्नथों के साथ तमाम विदेशी लेखकों के साहितयों का अधययन किया । वामपंथियों के अनुसार प्रो . तुलसी राम की वैचारिक यात्ा माकसखावाद के अधययन से प्रारमभ हुई और पूँजीवादी शोषण का परिचय उनहें माकसखावाद से हुआ । पेरियार ई . वी . रामासवामी नायकर के विचारों व आनदोलन से भी उनहें प्रभावित बताया जाता है । वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में वह वह माकसखावादी आनदोलन से जुड़े रहे । अकादमिक सेमिनारों , गोशषठयों व सामाजिक कायखारिमों में वह हिनदू धर्म और भारत की सत्ता के विरुद्ध बोलते रहे ।
ऐसा कहा जाता है कि प्रो . तुलसी राम उन चिनतकों थे , जो सवतनत्ता , समानता , बनधुतव व नयाय सरीखे मानवीय मूलयों पर आधारित समाज बनाना चाहते हैं , लेकिन विडमबना यह भी है कि वह अपनी धर्मपत्ी राधादेवी के साथ नयाय नहीं कर पाए । हिनदू धर्म एवं संस्कृति पर प्रहार करते हुए वह अपने वामपंथी साथियों को हमेशा प्रसन्न करने की कोशिश में जु्टे रहे । वह हिनदू वयवसथाओं की तुलना साम्राजयवाद से करते हुए कहते थे कि यह भी एक तरह का साम्राजयवाद है , जो भारत को कमजोर कर रही है । भारत एक सवर्ण उपनिवेशवाद है , जो दलितों के शोषण पर कायम है । यूरोप की तरह भारत में पूंजीवाद , सामनतवाद से संघर्ष करके सथालपत नहीं हुआ , बशलक भारत में पूंजीवाद की सथापना में सामनतवाद सहायक की भूमिका में था ।
हर सतर पर हिनदू धर्म और संस्कृति के साथ भारत पर प्रश्नचिनह लगाने वाले प्रो .
तुलसीराम के निशाने पर जिंदगीभर ब्ाह्मणवाद ही रहा और उनहोंने कभी भी मुशसलम या ईसाई धर्म द्ारा दलित समाज के विरुद्ध किए जाने वाले अतयाचारों एवं अवैध धर्मानतरण के विरुद्ध अपनी आवाज नहीं उठायी । कहा जा सकता है कि वह मुशसलम और ईसाई वर्ग को मूक रूप से अपनी गतिविधि चलने के लिए समर्थन देते रहे । जिंदगी भर वह वामपंथियों को यह कहकर भड़काते रहे कि वापमंथ को ब्ाह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष छेड़ना चाहिए ।
भारत में वामपंथियों के किसी भी दसतावेज में वर्ण-वयवसथा का विरोध उशलललखत नहीं है । यदि कुछ है , तो इकके-दुकके प्रसतावों में खानापूर्ति के लिए मात् छूआछूत का उललेख मिलता है । इसके विपरीत वर्ण-वयवसथा का समूल नष्ट करने का अभियान चलाने वाले तथा सही मायने में दलित मुशकत का सूत्पात करने वाले बाबासाहब अमबेडकर के विरुद्ध उनहें देशद्रोही , गद्ार तथा साम्राजयवादी एजेण्ट आदि जैसे आरोप विभिन्न कमयुलनस्ट दसतावेजों में अव्य मिलते हैं ।
‘ हिनदुतव ’ तथा ‘ राषट्वाद ’ को वर्ण- वयवसथा से जोड़ने वाले प्रो तुलसीराम हमेशा हिनदू धर्म के विरोधी के रूप में ही लचशनहत किए जाते रहे । वह हिनदू धर्म की वैचारिकी को सवतनत्ता , समानता , बनधुतव व नयाय पर आधारित समाज निर्माण में प्रमुख बाधा मानते रहे । 13 फरवरी 2015 में प्रो तुलसीराम का निधन हों गया और अब उनकी धर्मपत्ी राधादेवी असहाय होकर घूम रही हैं । जो लोग प्रो . तुलसीराम की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं , शायद उनके पास भी यह उत्तर नहीं होगा कि आखिर राधादेवी का कसूर कया था ? आखिर राधा देवी को जिंदगी भर अकेले कयों रहना पड़ा ? कया यह प्रो . तुलसीराम के चररत् का दोहरापन नहीं है ?
नगरों की रंगनीननी में खोकर लोग बन जाते हैं प्ो . तुलसनीराम जैसे fg
नदू धर्म में पति और पत्ी के रर्ते को पलवत् रर्ता माना जाता है और इस रर्ते की पलवत्ता बनाए रखने के लिए पत्ी और पति , दोनों ही उम्र भर अपने- अपने ढंग से प्रयास करते रहते हैं । लेकिन भारत के कई राजयों में , विशेष रूप से ग्ामीण क्ेत् में रहने वाले पुरुष प्रायः काम-धंधे के लिए अपने गांव को छोड़कर नगरों में चले जाते हैं । इनमें से कई ऐसे होते हैं , जो विवाहित होते हैं और वह अपनी पत्ी को गांव में परिवार के पास छोड़कर चले जाते हैं । बात सिर्फ इतनी ही नहीं है । नगरों में पहुंचने के बाद नगरों की रंगीनियां पुरुषों पर हावी होने लगती है । कथित रूप से खुलेपन की संस्कृति का प्रभाव उनपर होना प्रारमभ हो जाता है और फिर प्रायः ऐसा होता है कि वह नगरों में पुनः शादी कर लेते हैं । हालांकि यह शादी क़ानून सममत नहीं होती है , परनतु इस शादी के पीछे वह काला सच भी छिपा होता है , जिसकी जानकारी सबको नहीं होती ।
दूसरी शादी करके पुरुष तो अपनी जिंदगी में खो जाता है , लेकिन उधर गांव में पहली पत्ी और परिवार हर रोज यही सोचता है कि उनका पति या उनका बे्टा या उनका दामाद , जलद ही गांव आएगा और अपनी पत्ी को साथ लेकर जाएगा । पर ऐसा नहीं होता है । पति-बे्टा या दामाद एक निश्चत अंतराल में गांव तो आता है , पर हर बार कोई न
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