पक् की विफलता का यही मुखय कारण भी था ।
पूना-पैक्ट के पीछे कांग्ेस , गांधी और अनय हिनदू नेताओं की मंशा दलित वगतों को हिंदू फोलड में रखने की थी । पृथक निर्वाचन के सथान पर संयुकत निर्वाचन की पद्धति को इस पैक्ट में इसलिए सवीकार किया गया था ताकि सत्ता में दलित प्रतिनिधितव सवर्ण मतों पर निर्भर रहे I उनका एक मकसद और भी था , जैसा कि डा . अमबेडकर का मत है , गांधी इस बात के लिये आतुर थे कि दलित केवल हिनदुओं की जागीर बने रहे । वे नहीं चाहते थे कि ईसाई और मुसलमान उनमें रुचि लें । इसके लिये ही गांधी और कांग्ेस ने असपृ्यता-निवारण को अपने कायखारिम में शामिल किया था । यह मूलरूप से डा . अमबेडकर की अवधारणा के खिलाफ था । उनहोंने महाड़ और नासिक के दोनों सतयाग्हों में असपृ्यता के मुद्े को नागरिक अधिकार का जवलंत प्रश्न बनाया था । यही नागरिक अधिकार दलितों के लिये उनके पृथक राजनीतिक अधिकारों की मांग में था । गांधी को इसमें यह खतरा दिखाई दे रहा था कि यदि असपृ्यता का मुद्ा नागरिक अधिकार का प्रश्न बन गया था , तो जैसा कि डी आर नागराज का भी मत है , अनय परिवर्तनकारी शशकतयां एकजु्ट होकर विक्ट मोर्चा बना लेंगी । इसलिये उनहोंने असपृ्यता की समसया को हिनदुतव का अनदरूनी मामला बताया और उसे जनतनत् का मुद्ा नहीं बनने दिया ।
पूना-पैक्ट के मूलयांकन में मैं यह सपष्ट करना चाहूंगा कि यह दलित राजनीति के आरशमभक अर्थात् उद्भव काल की परिघ्टना थी , जिसमें दलित पक् की हार हुई । इसका एक कारण यह था कि उस काल की दलित जनता पूरी तरह अलशलक्त और नासमझ थी , उसमें आज जैसी समझ नहीं थी । वह न तो लोकतनत् का अर्थ जानती थी और न उसमें अपनी भूमिका का महतव समझती थी । वह सिर्फ डा . अमबेडकर को अपना नेता मानती थी और यह लव्वास करती थी कि वे उनकी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं । दूसरी तरफ , जिन उच्च जातीय हिनदुओं से दलितों को आजाद होना था , वे लशलक्त भी थे , समझदार भी थे । वे लोकतनत् के अर्थ को भी जानते थे और उसमें अपनी भूमिका के महतव को भी समझते थे । वे ऐसे किसी भी समझौते और निर्णय के विरुद्ध थे , जो दलितों को उनसे आजाद करते थे । यदि पूना-पैक्ट न होता , तो वे देशभर के गांव-शहरों में दलितों को गाजर- मूली की तरह का्टने के लिये तैयार बैठे थे । दलित पक् इसी आतंक के कारण पराजित हुआ था और पूना-पैक्ट अशसततव में आया था ।
पूना-पैक्ट के बाद दलित राजनीति के गांधीवादी माडल का उदय हुआ । गांधी ने दलितों को ‘ हरिजन ’ नाम दिया । इसलिये हम इस माडल को हरिजन राजनीति का भी नाम दे सकते हैं । हरिजन राजनीति की दो मुखय विशेषता हैं । पहली यह कि इसने असपृ्यता निवारण के
लिये काम किया । उसके राजनीतिक निहितार्थ दलितों को हिनदू फोलड में रखने के ही हैं , परनतु यह हमें ईमानदारी से सवीकार करना होगा कि इसे गांधी ने गमभीरता से लिया था । उनहोंने सवयं भी अपने शौचालय की सफाई की थी और अपनी पत्ी कसतूरबा को भी उसके लिये बाधय किया था । इससे प्रभावित होकर एक सनातनी ब्ाह्मण ने उत्तरप्रदेश में दिलकुशा में एक प्राईमरी पाठशाला के शौचालय की जनसमूह के समक् सफाई की थी । गांधी अपने इस कायखारिम को आतमशुद्धि और हृदय-परिवर्तन का नाम देते थे । यह एक राजनीतिक ड्ामा जरूर था , परनतु इसका दलितों और उच्च हिंदुओं दोनों पर प्रभाव पड़ा था । उच्च हिंदुओं पर यह प्रभाव पड़ा कि उनहोंने इसे सत्ता में बने रहने के लिये एक आव्यक साधन के रूप में लिया और ऐसे उच्च हिंदू भी आगे आये , जिनहोंने असपृ्यता- निवारण को ही अपना मिशन बनाया ।
1938 में डा . अमबेडकर ने इंडिपेंडें्ट लेबर पार्टी के घोषणा-पत् को रेलवे मजदूरों की एक रैली में रखा था । उनहोंने दलित राजनीति को दलित वगतों के आर्थिक हितों से जोड़ते हुए कहा था कि इस मायने में यह पहला सममेलन है , जब दलित वर्ग के लोग श्लमकों के रूप में अपने आर्थिक हितों पर विचार करने के लिये एकत् हुए हैं । उनहोंने इंडिपेंडें्ट लेबर पार्टी को वर्ग हित और वर्ग-चेतना पर आधारित बताते हुए कहा कि दूसरा कोई राजनीतिक दल इसका मुकाबला नहीं कर सकता । उनहोंने कहा कि मजदूरों के दो दु्मन हैं : एक ब्ाह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद । हमारे आलोचक ब्ाह्मणवाद को श्लमकों के शत्ु के रूप में समझने में असफल हुए हैं । ब्ाह्मणवाद इतना सर्ववयापी है कि वह आर्थिक क्ेत्ों को भी प्रभावित करता है । दलित वगतों के मजदूरों को लीजिये और उनके रोजगार के अवसरों की तुलना उस मजदूर से कीजिये , जो दलित वर्ग से समबशनधत नहीं है । दलित मजदूर के पास काम के कितने अवसर हैं ? बहुत-से ऐसे वयवसाय हैं , जिनसे दलित वर्ग का मजदूर इसलिये वंचित या बहिष्कृत है , कयोंकि वह अछूत है । ( जारी )
tqykbZ 2023 41