eMag_July 2023_DA | Page 40

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दलित नेताओं और हिनदू नेताओं के बीच समझौता हुआ , जिसे डा . अमबेडकर और गांधी जी ने अंतिम रूप दिया । यह समझौता 1932 में हुआ , जो पूना-पैक्ट के नाम से जाना जाता है ।
दलित आनदोलन के राजनैतिक विकास का यह पहला चरण था , जिसने एक तीसरे राजनीतिक ध्रुव के रूप में अपनी उपशसथलत दर्ज कर एक बड़ी सफलता हासिल की थी । इसने समकालीन सामप्रदायिक राजनीति में हिनदू और मुशसलम दोनों समुदायों के नेताओं को यह अनुभव करा दिया था कि जाति भी भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी सच्चाई है , जिसे उपेलक्त नहीं किया जा सकता । यह सच है कि दलित नेतृतव ने सवतनत्ता-संग्ाम का समर्थन नहीं किया था , पर उसके मूलभूत कारणों को जाने बिना दलित नेतृतव के समबनध में एकतरफा राय कायम करना गलत होगा । दरअसल दलित नेतृतव , जिसे हिंदू नेता प्रलतलरियावादी मानते थे , आतमरक्ा की शसथलत में था । यदि वह राषट्ीय आनदोलन या सवतनत्ता-संग्ाम में अलग-थलग था , तो इसके जिममेदार सवयं कांग्ेस और हिनदू महासभा के नेता थे । इन हिनदू नेताओं ने , जिनमें गांधी जी भी शामिल थे , मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों को मान लिया था , कयोंकि धर्म के आधार पर उनके लिये वह एक पृथक अलपसंखयक समुदाय था । इसी आधार पर वह सिखों और ईसाईयों के लिये भी पृथक राजनीतिक अधिकार देने को तैयार थे , हालाँकि वे दलितों को हिनदू मानते थे , पर वे उनकी किसी भी राजनीतिक योजना में शामिल नहीं थे । दलितों की सामाजिक शसथलत को देखते हुए और उनके प्रति सवणतों के अमानवीय वयवहार को नजर में रखते हुए डा . अमबेडकर का मत था कि दलित हिनदुतव के अंग नहीं हैं , वे उसमें दास वर्ग हैं , इसलिये दलित वर्ग भी एक पृथक समुदाय हैं । कांग्ेस और हिनदू महासभा के राजनीतिक एजेंडे में दलित-मुशकत की कोई कार्य-योजना नहीं थी ।
दलित नेतृतव की चिनता यह थी कि देश आजाद हुआ तो आजादी का वासतलवक उपयोग हिनदू और मुसलमान ही करेंगे , दलितों को उससे
वंचित ही रहना है । चिनता का मुखय कारण यह था कि कांग्ेस और हिनदू महासभा के पास आजादी की कोई सपष्ट रूपरेखा और परिकलपना नहीं थी । अंग्ेजों से मुशकत के बाद आजाद भारत की सरकार का सवरूप कया होगा और सत्ता किनके हाथों में आयेगी , यह अलन्चय की शसथलत में था । इसलिये डा . अमबेडकर को कहना पड़ा था , ‘‘ अछूतों को डर है कि भारत की हिनदू राज सथालपत करेगी और अछूतों के लिये दरवाजे बंद हो जायेंगे । सदैव के लिये उनके जीवन की सभी आशाएं , सवतनत्ता और उनकी खुशियों के स्ोत बंद हो जायेंगे तथा वे केवल लकड़ी चीरने वाले और पानी खींचने वाले ही बना दिये जायेंगे ।’’
डा . अमबेडकर ने कांग्ेस की शसथलत पर ल्टपपणी करते हुए लिखा , ‘‘ जब यह पूछा जाता है कि सवतनत् भारत के संविधान के समबनध में कया होना चाहिए ? कांग्ेस का उत्तर होता है कि लोकतनत् होगा । जब यह पूछा जाता है कि लोकतंत् किस प्रकार का होगा , तो कांग्ेस का उत्तर होता है कि यह वयसक मताशधकार पर आधारित होगा । वयसक मताशधकार के अतिरिकत संविधान में कया ऐसे भी संरक्ण प्रदान किये जायेंगे , जो हिनदू सामप्रदायिक बहुमत के अतयाचारों को रोकने में सक्म होंगे ? तो कांग्ेस का उत्तर पूर्णतया नकारातमक होता है ।’’, दलित वर्ग के लोग हिनदुओं के अतयाचारों से सुरक्ा के लिये संवैधानिक संरक्णों की गारं्टी चाहते थे , जिसके लिये कांग्ेस तैयार नहीं थी । कांग्ेस कहती थी कि आजादी मिलने के बाद ही संरक्णों की मांग की जानी चाहिए । दलित नेतृतव इसके लिये तैयार नहीं था I दलित नेतृतव का तर्क था कि भारत की सवतनत्ता उस धन के समान है , जिसका कोई रिसीवर होता है । इस समय रिसीवर की शसथलत में ब्रिटिश सरकार है । जैसे ही आपसी मतभेद दूर हो जायेंगे और भावी संविधन की रूपरेखा तय हो जायेगी , ब्रिटिश सरकार उस धरोहर को योगय भारतीयों को सौंप देगी । तब दलित वर्ग इससे लाभ कयों न उठाये ?
दलित नेतृतव चाहता था कि देश की मुखय समसयाओं को , जिनमें दलित-मुशकत भी एक
समसया थी , ईमानदारी से समझौता करके निप्टाने के बाद सामूहिक रूप से सवतनत्ता का दावा किया जाये । लेकिन कांग्ेस इस आधार पर सवतनत्ता की लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी । दलितों के प्रति कांग्ेस की उपेक्ा पर डा . अमबेडकर ने कहा था , ‘‘ हम उतने मजबूत नहीं हो सकते , जितनी कांग्ेस है । हम संखया में भी उतने नहीं हो सकते हैं । परनतु हम सामाजिक जीवन के इस सिद्धांत में लव्वास करते हैं कि यदि हमें सूखी रो्टी के सिवा कुछ और नहीं मिलता है , तो हमें उसी को अपने साथियों में बां्ट लेना चाहिए । कांग्ेस सूखी रो्टी के लिये पैदा नहीं हुई है । वह पूर्ण भोजन के लिये मैदान में आई है और उस दावत में सवयं ही तृपत होना चाहती है । वह दूसरों को इससे वंचित रखना चाहती है ।
हालाँकि कमयूनल अवार्ड में सवीककृत पृथक निर्वाचक मंडलों और पृथक प्रतिनिधितव के विरुद्ध गांधी के इस तर्क में दम था कि यह एक विशुद्ध धार्मिक मामला है । पृथक निर्वाचक मंडल सवयं दलितों के लिये हानिकारक होंगे , कयोंकि वे जानते हैं कि सवर्ण हिनदुओं के बीच उनकी कया शसथलत है और किस प्रकार वे सवणतों पर आलश्त हैं ? कया गांधी हिनदू समाज की सही तसवीर पेश कर रहे थे या दलित वर्ग को भयभीत कर रहे थे ? ये दोनों चीजें थीं और इसका प्रभाव दलितों के विरुद्ध पड़ना ही था । दलित नेतृतव ने इसे अनुभव किया था और पूना-पैक्ट में दलित
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