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स्वतंत्रता से पहले और बाद में दलित राजननीति-1
कंवल भारती
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हाराषट् में जयोलतराव फुले के ‘ नवजागरण ’ के उपरांत जो दलित चेतना उभरी , उसका राजनीतिक प्रभाव 1923 में देखने को मिला , जब बमबई की विधान परिषद ने यह प्रसताव पारित किया कि सभी सार्वजनिक सुविधाओं और संसथाओं का उपयोग करने का दलित वगतों के लोगों को भी समान अधिकार होगा । यह वसतुतः वह संघर्ष था , जिसने ततकालीन राषट्ीय परिदृ्य में राजनीति के तीसरे ध्रुव ( दलित राजनीति ) को जनम दिया । इसी तीसरे ध्रुव की राजनीति ने दलित वगतों को सत्ता में भागीदारी
दिलाई । यहां यह बात समझने की है कि जो सवतनत्ता संग्ाम लड़ा जा रहा था , उसके केनद्र में दलित-मुशकत का प्रश्न नहीं था । दूसरी बात यह समझने की है कि राजनीति में दलित प्रश्न किस तरह शामिल हुआ ? प्रथम लव्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1919 के अधिनियम में संवैधानिक सुधार करने के लिये विचार किया । कांग्ेस और हिनदू नेताओं ने मुसलमानों के पृथक राजनैतिक अधिकारों तथा हितों को सवीकार कर लिया था ।
इस समझौते में यह चिनता नहीं थी कि दलित वगतों के भी कुछ हित हैं और उनहें भी राजनीतिक अधिकार मिलने चाहिए । यह शसथलत दलित वर्ग
के लिये चिंताजनक थी । उनहें भय था कि यदि अंग्ेजों ने भारत को आजाद कर दिया , तो यह आजादी दलितों के लिये कया महतव रख सकती है ? डा . अमबेडकर ने साउथबरो समिति के समक् , जिसने वैधानिक सुधारों पर अपनी रिपो्टटि दी थी , साक्य में कहा था कि दलितों को प्रायः दया का पात् समझा जाता है , पर किसी भी राजनीतिक योजना में उनकी यह कहकर उपेक्ा कर दी जाती है कि उनके कोई हित नहीं हैं , लेकिन वासतव में उनके ही हित ऐसे हैं , जिनकी रक्ा की सबसे बड़ी जरूरत है । इसलिये नहीं कि उनके पास कोई धन-जायदाद है , जिसे हड़पे जाने से बचाना है , बशलक उनका तो सबकुछ
38 tqykbZ 2023