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को सवयं झेला । अपमान और तिरसकार की पीड़ा ने अनेक बार उनके हृदय के अनतरतम को झकझोर कर रख दिया था । अपने करोड़ों बनधुओं के दु : ख को देखकर वे दृढ़ होते चले गये । " अपना यह जीवन इनहीं पीलड़त मानवजनों के दु : खों को दूर करने में ही लगा दूंगा " यह संकलप दिन प्रतिदिन और अधिक मजबूत होता चला गया । भौतिक सुखों की चाह , उच्च पद प्रापत करने की महतवाकांक्ा , वयशकतगत प्रतिषठा , परिवार आदि का मोह भी उनहें इस मार्ग से कभी विचलित न कर सका । इसी कारण जब आव्यकता पड़ी तब वे केनद्रीय मंत्ी का प्रलतशषठत पद छोड़कर नेहरू जी के मंलत्मंडल से बाहर आ गये । हैदराबाद के निजाम तथा वैल्टकन लस्टी के पोप द्ारा अककूत समपलत्त का निवेदन भी उनहें उनके मार्ग से भ्रमित न कर सका और वे निरनतर अपने सुनिश्चत मार्ग पर
चलते रहे जिसके द्ारा करोड़ों असपृ्य बनधुओं को सममालनत जीवन प्रापत करवा सकें ।
आन्ोलनकारी समाज सुधारक
डा . आमबेडकर जी के जीवन में एक महतवपूर्ण बात हमको दिखलाई देती है वह यह है कि वे पुरानी सभी मानयताओं , आदशतों और वयवसथाओं को धवसत करना नहीं चाहते तथा किसी जाति या वर्ण के वे शत्ु नहीं हैं , जो अचिा है वह संभालकर रखना और जो अनाव्यक है उसे ह्टाना ही उनहें अभीष्ट है । इस दृष्टि से वे एक " आनदोलनकारी " हैं । डा . आमबेडकर यह जानते थे कि भारतीय दर्शन के मौलिक ततव बहुत उदात्त हैं । किनतु , विककृलतयों , रूढ़ियों , ढोंग , पाखणड , कर्मकाणडों एवं परंपराओं का अनाव्यक अतिरेक , जिसने उस समसत दर्शन जो सभी मनुषयों को समान मानता है तथा करुणा , प्रेम ,
ममता , बनधुतव , दया , क्मा , श्द्धा आदि सदगुणों का सनदेश देता है एवं उसका संरक्ण भी करता है , को ढंक लिया है , वही हमारे परिवर्तन का मूलाधार बना रहे । सुधारवादी आनदोलन को चलाते समय हर क्ण यह बात समरण रखनी होगी कि यदि किसी भी कारण से आपसी प्रेम , ममता और बनधुतव का भाव समापत हो गया तो परिवर्तन का यह संघर्ष एक क्रूर वैमनसय में बदलकर अधिकतम अधिकारों को पाने की इचिा रखने वाले गृहयुद्ध में बदल जायेगा । अत : वे कहते थे कि हम यह बात धयान में रखें कि हमारे देश में सभी सदगुणों का दाता , ' धर्म ' है । इस ' धर्म ' को अपने विशुद्ध रूप में पुनसथाखालपत करना है । ढोंग , पाखणड , भेदभाव , कर्मकाणड आदि के परे ' धर्म ' में अनतलनलहखात महान सदगुणों को संरलक्त करते हुए हमें आगे बढ़ना है । कुछ लोग कहते हैं कि धर्म की मानव जीवन में कोई आव्यकता नहीं है । डा . आमबेडकर लोगों के इस मत से सहमत नहीं थे । उनहोंने कहा- " कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म समाज के लिए अनिवार्य नहीं है , मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता । मैं धर्म की नींव को समाज के जीवन तथा वयवहार के लिए अनिवार्य मानता हूं ।" माकसखावादी लोग धर्म को अफीम कहकर उसका तिरसकार करते हैं । धर्म के प्रति यह विचार माकसखावादी दृष्टिकोण की आधारशिला है । डा . आमबेडकर माकसखावादियों के इस मत से सहमत नहीं थे । वे इस बात से पूरी तरह आ्वसत थे कि ' धर्म ' मनुषय को न केवल एक अचिा चररत् विकसित करने में सहायता करता है अपितु वह समाज के संरचनातमक पक्ों को भी निर्धारित करता है । चररत् एवं शिक्ा को वे धर्म का ही अंग मानते थे । वे कहते थे ' धर्म ' के प्रति नवयुवकों को उदासीन देखकर मुझे दु : ख होता है ।" डा . साहब का मानना था कि ' धर्म ' कोई पंथ या कर्मकाणड नहीं है । धर्म के नाम पर हो रहे निरर्थक ढोंग , पाखणड तथा वयथाखाडमबरों को वे धर्म नहीं मानते । धर्म से उनका तातपयखा है- वयशकतगत , पारिवारिक एवं सामाजिक वयवसथाओं को आदर्श रूप से संचालित करने वाला ' नैतिक दर्शन ', जो सभी के लिए श्ेयसकर है वही ' धर्म ' है । �
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