गया । यह तब हुआ जब जाति , धर्म , लिंग से आधार पर नागरिकों के मधय किसी प्रकार का भेदभाव ना करने की बात देश का संविधान करता है । किसी दूसरी जाति के अधिकारों को छीनकर किसी एक को देना भी राजनीतिक जातिवाद है । इस राजनीतिक जातिवाद को हमारे देश में आरक्ण के नाम पर खुललमखुलला अपनाया गया । देश में जिस प्रकार जातिवाद राजनीतिक सतर पर दिखाई देता है उसके लिए देश की राजनीति और राजनीतिक दल उत्तरदायी
हैं । जहां तक दलित कौन है ? का प्रश्न है तो प्रतयेक वह वयशकत जो किसी ना किसी प्रकार से दलन , दमन और अतयाचार का शिकार हो रहा है , उसे दलित कहा जाना चाहिए । ऐसा
वयशकत किसी जाति विशेष का नहीं हो सकता । वह कोई भी हो सकता है । इसलिए दलित किसी जाति विशेष के साथ जोड़ा जाना उचित नहीं है । प्रतयेक ऐसे वयशकत को दलित माना जाना चाहिए जो किसी ना किसी सक्म , समर्थ और शशकतशाली वयशकत के शोषण और दलन का शिकार है ।
यहां यह बताना भी उचित होगा कि हमारे देश में यद्लप संविधान को सववोपरि मानकर राजनीति की जाती है , राजनीतिक दल और उनके नेता अकसर यह कहते सुने जाते हैं कि संविधान सववोपरि है , परंतु यथार्थ में शसथलत दूसरी है । ऐसे कई काम इस देश में हो रहे हैं जो संविधान में कहीं उशलललखत नहीं हैं । इसके उपरानत भी देश की राजनीति में वे इस प्रकार सथान प्रापत कर चुके हैं जैसे वे पूर्णतः संवैधानिक हों । जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रलरिया को आप लें । राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रलरिया का उललेख देश के संविधान के किसी प्रावधान या अनुचिेद में नहीं है । इस प्रकार राजनीतिक दलों का जनम भारत में अवैध संतान के रूप में होता है और फिर वे वैध संतान के रूप में संविधान के नाम पर खाते कमाते हैं ।
कहने का अभिप्राय है कि देश के राजनीतिक दल इसलिए ऐसा आचरण करते हैं कि उनकी कोई संवैधानिक जिममेदारी नहीं होती । ये देश में जातिवाद , संप्रदायवाद , क्ेत्वाद , भाषावाद आदि को लेकर लोगों को भड़काने और उकसाने का काम करते रहते हैं । जब सत्ता में आ जाते हैं तो देश के संविधान को सववोपरि बताने का ना्टक करते हैं । यही कारण है कि देश में कई प्रकार की समसयाएं इन राजनीतिक दलों के द्ारा ही पैदा की गई हैं । देश के दलितों के साथ यदि नयाय नहीं हो पाया है तो इसके लिए राजनीतिक दल ही जिममेदार हैं । इनकी इचिा शशकत बहुत ही दुर्बल है । इनहोंने असपृ्यता लम्टाने के लिए कभी मन से प्रयास नहीं किया । राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए आरक्ण और सरकारी जमीन को पट्टे पर दलितों को देने की योजना के अतिरिकत इनहे कुछ और सूझा ही नहीं ।
राजनीतिक दलों के नेताओं का कहना है कि समाज से जातिवाद , अंधलव्वास , जड़ पूजा और असपृ्यता को लम्टाना राजनीतिक लोगों का काम ना होकर सामाजिक नेताओं का काम होता है । यह तर्क भी बहुत ही दुर्बल और अ्टप्टा है । पहली बात तो यह है कि यदि किसी जाति विशेष के उतथान और उद्धार के लिए ये वो्ट मांगते हैं तो समाज की विसंगतियों को लम्टाने का काम भी इनहीं का है । इसके अतिरिकत दूसरी बात यह है कि अब से पूर्व भी देश के अनेक राजा महाराजा ऐसे रहे हैं जिनहोंने सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध सवयं अभियान चलाया और उनहें तोड़ने का साहस करके दिखाया ।
बड़ौदा के आर्य नरेश सयाजीराव गायकवाड ने अपने शासनकाल में ऐसे 6 राजनियम बनाए थे , जिनसे सामाजिक विसंगतियों को उखाड़ने में सहायता मिली थी । वह आर्य सनयासी सवामी नितयानंद के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि सामाजिक आंदोलन के क्ेत् में सवयं उतर गए । उनहोंने 1908 में वैदिक विद्ान मास्टर आतमाराम अमृतसरी को बड़ौदा में आमंलत्त किया था और उनके नेतृतव में दलितों के कलयाण के लिए लगभग 400 पाठशालाऐं सथालपत करवाई थीं । जिनमें 20 हजार दलित समाज के बच्चों को पढ़ने का अवसर उपलबध करवाया था । इस संदर्भ में हमें यह भी धयान रखना चाहिए डॉक्टर अमबेडकर को छात्वृत्ति देने वाले भी यही बड़ौदा नरेश थे , जो मूल रूप से आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित हुए थे ।
जब डॉक्टर अमबेडकर शिक्ा हेतु लिए गए 20000 रूपये के ऋण का भुगतान महाराजा को नहीं कर सके तो आर्य समाज के नेता मास्टर आतमाराम जी ने महाराजा बड़ौदा से मिलकर उनसे विशेष निवेदन करके डॉक्टर अमबेडकर को दिया गया वह ऋण माफ करवा दिया था । यह घ्टना 1924 की है । इस प्रकार डॉक्टर अमबेडकर के निर्माण में महाराजा बड़ौदा का उतना हाथ नहीं है , जितना आर्य समाज का योगदान है । यदि आर्य समाज के नेता आतमाराम ना होते तो महाराजा बड़ौदा उनसे अपने पैसे को वापस लेते । जिसे वह देने
tqykbZ 2023 23