eMag_Jan2022_DA | Page 49

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नहीं । इसके नर्तन , मंचन के प़ीछे भावना वह़ी है जो भरत ने कह़ी है और संस्‍कृत के तकऱीबन हर नाटक के आरंभ में नांद़ी वचन के रूप में आत़ी है । '' समय-समय पर वर्षा हो , खेतों क़ी फसलें इल्ियों से रहित हों और खलिहान हमारे कोठों को भरें , गांव-गांव आरोग्‍य हो , किस़ी को कोई आधि-व्‍याधि नहीं हों , गायें और अन्‍य पशुधन रोग मुक्‍त हों और पर्याप्‍त दूध प्रदान करें ।'' गौरजा देि़ी के दरबार में यह व्रत लिया जाता है । इसका कलाकार फसल नहीं उजाडता ,
न मांदल जैसा बाजा जमीं पर रखा जाता है । सभ़ी मद्पान से दूर रहते हैं । आदम़ी ह़ी गवऱी करते हैं और औरतें उनके स्‍वास्‍थ्‍य के लिए गौरजा के दरबार में इसके लिए प्रतिदिन प्रार्थना करत़ी हैं । चाि़ीस से ज्‍यादा नाटक खेले जाता है । क्‍या देि़ी-देवता क़ी कथा और क्‍या लोकरंजक आख्‍यान । नौ ह़ी रस , तांडव और लास्‍य , पूरा का पूरा काव्‍य शास् त् , पुराण शास् त् , नाट्य शास् त् इसमें दिखाई देता है । जन से लेकर अभिजन तक के ख्‍याल । बूडिया , दो
राइयां , भोपा , कुटकडिया । पांच कलाकार मांझ़ी होते हैं और बाक़ी भ़ी वंश परंपरानुसार रमते हैं । श्ाद्ध पक् तक रमण होता है ।
40 दिनों तक ' बवाजवा कं धे और बंद सब धंधे '
मेवाड अंचल में होने वार्षिक लोकनृत्‍य- नाट्य ' गवऱी ' का श्ाद्धपक् में समापन होता है । यहां बसे भ़ीि-गमेत़ी आदिवासियों में गवऱी का आयोजन अनुष्‍ठान क़ी तरह किया जाता है । राख़ी के बाद इसका व्रत लिया जाता है । गवऱी तमाम नाटकप्रेमियों और सिने-रंगप्रेमियों के ब़ीि एक ऐसा नाट्य अनुष्‍ठान है जिसके आयोजन के मूल में ' नांद़ी वचन ' जैस़ी वह भावना विद्मान है जो नाट्यशास् त् में भरत मुनि करते हैं और संस्‍कृत के लगभग सभ़ी नाटकों में लोक से ग्हण क़ी गई है-- '' समय पर वर्षा हो , पृथ् ि़ी पर सुलभक् हो , गायें स्‍वस्‍थ हों और पयलसिऩी होकर पर्याप्‍त दूध प्रदान करें । बहु- बेटियां प्रसन्‍न हों , निरोग़ी , चिरायु और समृद्धशाि़ी हों । राज्‍य भयमुक्‍त हों ।'' नाटक के आयोजन के मूल में यह़ी भाव नाट्यशास् त् के रचयिता को अभिप्रेत रहा है । यह व्रत इसलिए है कि 40 दिन तक गवऱी दल के सदस्‍य न हऱी सब्‍ज़ी खाते हैं न ह़ी पांवों में जूते पहनते हैं । वे परिवार से पूऱी तरह दूर रहते हैं और किस़ी देवालय में ह़ी विश्ाम करते हैं । न कमाने क़ी चिंता न ह़ी खाने का ख्‍याल । बाजों को जम़ीन पर नहीं रखा जाता । बाजा कंधे और बंद सब धंधे ।
प्रवाण जवाए पर पेड़ न जवाए
इस दिन प्राय : जो ख्‍याल किया जाता है , वह ' बडलिया हिंदवा ' का होता है । इसके मूल में कथानक उन नौ लाख देवियों का है जो पृथ् ि़ी पर हरियाि़ी के लिए नागराजा वासुक़ी बाड़ी से पेडों को लेकर आत़ी है । आम लाने वाि़ी देि़ी अंबा कह़ी जात़ी है , ऩीम लाने वाि़ी देि़ी ऩीमज और प़ीपल लाने वाि़ी प़ीपलाज । देवियों के नामकरण का स्ाेत भ़ी गवऱी क़ी प्रस्‍तुति में समाहित होता है । देवियां उन पेडों का रोपण
tuojh 2022 दलित आं दोलन पत्रिका 49