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' गर्री ' : प्कृ क्त के

प्रति कृ तज्ञता प्दर्शन का माध्यम

डॉ . श्ीकृष्‍ण जुगनयू

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रािि़ी क़ी पहाडियों को जब सावन भिगो चुका होता है , भादौ क़ी पहि़ी ह़ी तिथि को मांदल और थाि़ी बज उठत़ी है , खासकर उन आदिवास़ी इलाकों में जो भ़ीि हैं और भगवान शिव के उपासक हैं । प्रकृति क़ी गोद में लहलहात़ी फसलें दानों को दूधाधार बनाने में अपना ध्‍यान देत़ी है और उस दाने को दमदार बनाने के लिए शिव-गौऱी क़ी आराधना में निकल पडते हैं ,
गांव-गांव ' गवऱी ' क़ी ि़ीिा आरंभ हो जात़ी है । उदयपुर अंचल में भादौ और आधे आसोज माह तक जिस गवऱी नृत्‍यानुष्‍ठान का आनंद उठाया जा सकता है , वह पूरा नृत्‍यानुष्‍ठान कई मिथक लिए हुए है । इससे मालूम होता है कि खेत़ी और पेड-पौधों के फलित होने के कलैंडर क़ी पहि़ी जानकाऱी महिलाओं को ह़ी लमि़ी थ़ी । यायावऱी ज़ीिन में आदम़ी को लशलक्त करने का श्ेय औरत को ह़ी है । इसलिए लमस् में भ़ी यह मान्‍यता िि़ी आई है कि औरतों ने ह़ी दुनिया को खेत़ी
करना सिखाया ।
आनुष्‍ठवानिक व्रत से कम नहीं गवरी
गवऱी एक आदिम नृत्‍य नाट्य है , जिसका पूरा ह़ी रूप आनुष्‍ठानिक है । भरताचार्य ने नाट्य के जितने जितने रूपों को लिखा है , कऱीब-कऱीब सभ़ी को गवऱी अपने में समेटे हुए है । न केवल पात्ों का वेश विन्‍यास , बल्क संवाद , लसथलत और स्‍थान तक भ़ी । गवऱी एक व्रत से कम
48 दलित आं दोलन पत्रिका tuojh 2022