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करत़ी है किंतु वे राजा जैसल से यह आश्वासन चाहत़ी है कि पेड क़ी हर हाल में सुरक्ा होग़ी । राजा वचन देता है कल उसका सिर कट जाए , मगर कोई पेड नहीं कटेगा । देि़ी उसके वचन क़ी पऱीक्ा लेने के लिए वरजू कांजऱी बनकर आत़ी है । दूसऱी ओर हरियाि़ी को उजाडने के लिए आबू के पहाड से भानिया जोग़ी अपने चेलों के साथ आता है और राजा को बरगला कर बरगद पर कुल्हाडा चला देता है । पहले वार में दूध क़ी धारा फूटत़ी है , दूसरे वार में पाऩी और त़ीसरे में रक्त क़ी धारा फूटकर सृष्ट में हाहाकार मचा देत़ी है । यह ख्याल वस्तुत : पर्यावरण क़ी सुरक्ा का पाठ पढाने वाला प्राि़ीनतम ख्याल है कि हर क़ीमत पर पेड बचने चाहिए । ब्ह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में , पद्मपुराण के सृष्टखंड , कृषि पराशर ,
काश्यप़ीय कृषि पद्धति आदि में इस प्रकार क़ी मान्यताओं को संजोया गया है मगर उनका वासतलिक वयािहारिक सिरूप लोक क़ी ऐस़ी ह़ी मान्यताओं में देखा जा सकता है ।
घड़वािण और ििवािण यवानी तैयवारी और विसर्जन
जिस किस़ी भ़ी गांव में गवऱी नर्तन का व्रत लिया गया , वहां इन दिनों समापन के दो-दो उत्सव मनाए जा रहे हैं । घडािि और वलावण अर्थात् तैयाऱी और विसर्जन । घडावण के दिन खाट पर काि़ी खोल चढाकर हाथ़ी बनाया जाता है और इंरि क़ी सवाऱी निकाि़ी जात़ी है । विसर्जन के लिए गजवाहिऩी पार्वत़ी ' गौरजा माता ' क़ी मृण्मय़ी मूर्ति बनाई जात़ी है और उसको सजा- धजाकर गांव में सवाऱी निकाि़ी जात़ी है । पूरे
रास्ते पर गवऱी के सभ़ी मांज़ी पात् - बूडियां , भोपा , दोनों राइयां , कुटकुटिया आदि खेलों को अंजाम देते चलते हैं और थाि़ी के साथ मांदल ( मर्दल , पखावज ) बजते हैं : दींग-बिदिंग , दींग-बिदिंग । केलवाडा-कुंभलगढ के पास लसथत हम़ीर क़ी पाल जलाशय पर भ़ी विसर्जन बहुत धूमधाम से होता है । अरािि़ी क़ी पहाडि़यों में बसे भ़ीिों के टापरों से ह़ी नहीं , आसपास के गांवों से भ़ी भीड़ उमड पडत़ी है । बहुत उल्लासपूर्ण वातावरण में गवऱी के व्रत का समापन होता है । कलाकारों के लिए रिश्तेदारों द्ारा पहनावे-पोशाक आदि लाये जाते हैं । पहिरावऩी होत़ी है और मान-मनुहार के दौर चलते हैं । विसर्जन के बाद चाि़ीस दिनों तक लगातार थिरकने वाले पांव अपने घर क़ी ओर लौट जाते हैं । �
50 दलित आं दोलन पत्रिका tuojh 2022