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जमीन पर इसका लिटमस टेसट हुआ तो ्यह कारगुजारी भी काम्याब साबित नहीं हुई । ऐसे में अब एक बार फिर सपा ने जाति का समीकरण साधने के लिए नई तरकीब निकाली है जिसके तहत उसने जाति विशेष की राजनीति करनेवाले छोटे — छोटे दलों को अपने साथ जोडा है । ्यहां तक कि दलित वोटों में सेंधमारी के लिए उसने चंद्रशेखर को भी साथ लेने की भरसक कोशिश की लेकिन सीटों का तालमेल नहीं होने के कारण समझौता नहीं हो सका । ्यानी समरिता में समझें तो सपा इस सत्य को सिीकार करने के लिए आज भी तै्यार नहीं है कि जाति की जंजीरों को तोडकर अब प्देश के मतदाता राष्ट्रीय हित को सिवोपरि समझ रहे हैं ।
जाति की जंजीर तोड़ रहे दलित ्यूपी में दलित वोटबैंक की राजनीति करने
वाली बसपा के पिछले प्दर्शन पर ही नहीं बसलक
बसलक इस बार दिख रहे उसके टूटे — बिखरे आतममिशिास पर भी नजर डाले तो ्यह साफ हो जाता है कि दलित समाज अब जाति की जंजीरों से आजाद होकर खुली हवा में सांस लेने और सर्व समाज के साथ कांधे से कांधा मिला कर चलने के लिए प्मतबद हो ग्या है । जाती्य सिामभमान का झांसा देकर अपना उललू सीधा करने की बसपा सुप्ीमो मा्यावती का असली चेहरा सार्वजनिक हो जाने का ही नतीजा है कि अब दलित वोट बैंक लगातार उनके हाथों से छिटकता दिख रहा है । अब ले — देकर दलितों के एक समूह में ही मा्यावती प्भावी दिख पा रही हैं और उस पर भी उनकी पकड लगातार कमजोर ही हो रही है । ्यह क्रम शुरू हुआ 2014 के लोकसभा चुनाव में जब उत्तर प्देश में बहुजन समाज पाटटी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी । ्यह मा्यावती के लिए तो बडा झटका था ही , साथ ही मस्यासी गमल्यारों में सबसे ज्यादा चर्चा का विष्य भी बना । इसे नजरअंदाज करना
इसलिए भी मुसशकल था , क्योंकि ्यह सब मोदी लहर के कारण हुआ था । हालांकि मोदी लहर में भी समाजवादी पाटटी 5 और कांरिेस 2 सीटें जीतने में काम्याब हुई थी । इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बहुजन समाज पाटटी का रिजलट बहुत ही खराब ग्या । 403 विधानसभा सीटों में महज 19 पर ही बसपा जीत दर्ज कर सकी । सवाल ्यहीं से उठा कि क्या उत्तर प्देश में दलित समाज में न्या मस्यासी ठिकाना तलाश मल्या है । मोटे तौर पर कहा ग्या कि 2014 के चुनाव में मा्यावती का जीरो हो जाना और बीजेपी और उसके सह्योगी दलों का 80 में से 73 सीटों को जीत लेना दिखाता है कि दलित समाज के वोट का एक हिससा बसपा से बीजेपी में शिफट हुआ है । 2017 के चुनाव में बसपा के 19 सीटों पर सिमट जाने के बाद ्यह बात और भी मजबूती के साथ कही जाने लगी । दलित वोट अब बहुजन समाज पाटटी में नहीं रहा । लेकिन , मा्यावती कभी भी इस तथ्य को सिीकार करने को तै्यार नहीं हुई । उनका कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही एक भी सीट न मिली हो , लेकिन उनहें वोट 19 फीसदी मिला । ्यह वोट दलित समाज का था । 2017 के चुनाव को लेकर भी उनका ्यही तक था । एक तरह से वह कहना चाह रही थी कि दलित उनके साथ अभी भी है । बाकी जामत्यों के वोट नहीं मिल रहे हैं ।
गुलाबी तस्ीर की स्ाह हकीकत
्याद करें तो 90 के दशक तक ्यूपी में दलित समाज कांरिेस का ही वोट बैंक रहा था । 90 के दशक में जब पूरे देश में मस्यासत का चेहरा बदला , तो ्यूपी में दलित समाज बहुजन समाज पाटटी के साथ गोलबंद हुआ और बसपा की सबसे बडी ताकत बना । बसपा के टिकट के लिए मारामारी होती थी , क्योंकि उममीदवारों को लगता था कि बीएसपी निशान पर उनहें 20-21 फीसदी वोट तो बगैर किसी मेहनत के ही मिल जाएगा । दूसरी जामत्यों के वोटों के लिए थोडी सी मेहनत कर लेने पर भी चुनाव जीत सकते हैं । ऊपर से
8 दलित आं दोलन पत्रिका iQjojh 2022