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उन जामत्यों के लिए जो अछूत प्था की शिकार थीं । लेकिन समाज में आदिवासी और अनेक घुमंतू जामत्याँ भी शोषण का शिकार रहीं हैं । वे भी इस दा्यरे में शामिल हैं । इसलिए जब कोई व्यसकत इस शबद का इसतेमाल अधिक व्यापक अर्थ में करता है तब उसे ्यह अवश्य सप्ट करना चाहिए कि वह इसका इसतेमाल किस संदर्भ में कर रहा है । ्यह एक ऐसे दलित लड़के की कहानी है जिसके साथ एक ब्ाह्मण उसके विारा संस्कृत शलोक उच्चारित करने के ‘ अपराध ’ में दुर्व्यवहार करता है । बाद में ्यह लड़का शिक्ा प्ापत कर जज बनता है । एक अन्य पुराना उदाहरण है मललापलले ( 1922 में प्काशित )। मललापलले का अर्थ है – माला लोगों का निवास सथान । माला , आंध् प्देश की दो प्मुख एससी जामत्यों में से एक है । इसके लेखक उन्नावा लक्मीनारा्यरा ( 1877-1958 ) एक ऊँची जाति से थे । दो मार्मिक ककृमत्यां जो हाथ से मैला साफ करने की प्था और उस समुदा्य के चरित्ों को म्मत्त करती हैं , वे हैं थोमट्युडे माकन और थोट्ी । इन दोनों ककृमत्यों के लेखक क्रमश : थकाजी शिवशंकर पिललई ( जो अपने उपन्यास चेमेन के लिए अधिक जाने जाते हैं और जिस पर फिलम भी बनाई जा चुकी है ) और नागवलली आर . एस . कुरू थे । ्ये दोनों ककृमत्यां 1947 में प्काशित हुईं थीं । ्यह दिलचसप है कि ' मेहतर का पुत् ', ' मेहतर ' के पूर्व प्काशित हुआ था । कुमारन आसन की दुरावसथा व चंडाल भिक्ुकी भी दलित समुदा्यों के बारे में हैं । कुमारन आसन स्वयं इड़िवा समुदा्य के थे । उस सम्य इड़िवाओं को भी ' अछूत ' माना जाता था , हालांकि वे इस
प्था से उतने पीड़ित नहीं थे जितने कि दलित ।
द्र्क्षा के लिए हुए संघर्ष पर आधारित ' जूठन '
हिंदी दलित साहित्य में ओमप्काश वालमीमक की आतमकथा ' जूठन ' ने अपना एक विमश्ट सथान बना्या है | इस पुसतक ने दलित , गैर- दलित पाठकों , आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है , वह उललेखनी्य है । सितनत्ता प्ासपत के बाद भी दलितों को शिक्ा प्ापत करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पडा , ' जूठन ' इसे गंभीरता से उठाती है । प्सतुमत और भाषा के सतर पर ्यह रचना पाठकों के अनतम्णन को झकझोर देती है । भारती्य जीवन में रची-बसी जाति-व्यवसथा के सवाल को इस रचना में गहरे सरोकारों के साथ उठा्या ग्या है । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक विसंगमत्यां क़दम – क़दम पर दलित का रासता रोक कर खडी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्ंत् रचती है । लेकिन एक दलित संघर्ष करते हुए इन तमाम विसंगमत्यों से अपने आतममिशिास के बल पर बाहर आता है और जेएन्यू जैसे विशिमिद्याल्य में विदेशी भाषा का विविान बनता है । रिामीण जीवन में अमशमक्त दलित का जो शोषण होता रहा है , वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शममयंदगी का सबब होना चाहिए था ।' पच्चीस चौका डेढ सौ ' ( ओमप्काश वालमीमक ) कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढता है , तो वह समाज में व्यापत शोषण की संस्कृति के प्मत गहरी निराशा से भर उठता है ।
सदियों के उत्ीड़न से पनपा आक्रोश
दलित कहामन्यों में सामाजिक परिवेशगत पीडाएं , शोषण के विविध आ्याम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिव्यकत हुए हैं । ' अपना गाँव ' मोहनदास नैमिशरा्य की एक महत्िपूर्ण कहानी है जो दलित मुसकत-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है । दलित साहित्य की ्यह विमश्ट कहानी है । दलितों में सिामभमान और आतममिशिास जगाने की भाव भूमि तै्यार करती है । इसीलिए ्यह विमश्ट कहानी बन कर पाठकों की संवेदना से दलित समस्या को जोडती है । दलितों के भीतर हज़ारों साल के उतपीडन ने जो आक्रोश जगा्या है वह इस कहानी में सिाभाविक रूप से अभिव्यकत होता है ।
इतिहास की पुनर्व्याख्ा की कोद्र्र्
आतमकथाओं की एक विमश्टता होती है उसकी भाषा , जो जीवन की गंभीर और कटू अनुभूमत्यों को तटसथता के साथ अभिव्यकत करती है । एक दलित सत्ी को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पडता है- एक उसका सत्ी होना और दूसरा दलित होना । सप्टतः दलित चिंतकों ने रूमढिादी इतिहास की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की है । इनके अनुसार गलत इतिहास - बोध के कारण लोगों ने दलितों और ससत््यों को इतिहास - हीन मान मल्या है , जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महतिपूर्ण है । दलित चिंतकों ने इतिहास की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की है । इनके अनुसार गलत इतिहास - बोध के कारण लोगों ने दलितों और ससत््यों को इतिहास - हीन मान मल्या है , जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महतिपूर्ण है । वे इतिहासवान है । सिर्फ जरूरत दलितों और ससत््यों विारा अपने इतिहास को खोजने की है । वे इतिहासवान है । सिर्फ ज़रूरत दलितों और ससत््यों विारा अपने इतिहास को खोजने की है । �
48 दलित आं दोलन पत्रिका iQjojh 2022