eMag_Feb2022_DA | Page 42

fjiksVZ

को जब वे उसे तीन गोमल्यों से मारने में सफल हुए तो पता चला कि ्यह आदमी उस रोज मरा ही नहीं । उस रोज हुआ इतना ही कि ्यह आदमी भारत की परिधि पार कर , सारे संसार में फैल ग्या । डेसमंड टूटू संसार भर में फैले इसी गांधी- परिवार के अनमोल सदस्यों में एक थे । खास बात ्यह भी थी कि वे उसी दमक्र अफ्ीका के थे जिसने बैरिसटर मोहन दास करमचंद गांधी को सत्यारिही गांधी बना कर संसार को लौटा्या था । गांधी की ्यह विरासत मंडेला व टूटू दोनों ने जिस तरह निभाई उसे देख कर महातमा होते तो निहाल ही होते ।
चर्च के साये का मिला सशक्त सहारा
शिेत आधिपत्य से छछुटकारा पाने की दमक्र अफ्ीका की लंबी खूनी लडाई के अधिकांश सिपाही ्या तो मौत के घाट उतार दिए गए ्या देश बदर कर दिए गए ्या जेलों में सदा के लिए दफ्न कर दिए गए । डेसमंड टूटू इन सभी के साक्ी भी रहे और सहभागी भी फिर भी वे इन सबसे बच सके तो शा्यद इसलिए कि उन पर चर्च का सा्या था । सन् 1960 में वे पादरी बने और चर्च के धार्मिक संगठन की सीढ़ियां ्ढते हुए 1985 में जोहानिसबर्ग के बिशप बने । अगले ही वर्ष वे केप टाउन के पहले अशिेत आर्चबिशप बने । दबा-ढका ्यह विवाद तो चल ही रहा था कि डेसमंड टूटू समाज व राजनीति के संदर्भ में जो कर व कह रहे हैं क्या वह चर्च की मान्य भूमिका से मेल खाता है ? सत्ता व धर्म का जैसा गठबंधन आज है उसमें ऐसे सवाल केवल सवाल नहीं रह जाते हैं बसलक छिपी हुई धमकी में बदल जाते हैं । डेसमंड टूटू ऐसे सवाल सुन रहे थे और उस धमकी को पहचान रहे थे । इसलिए आर्चबिशप ने अपनी भूमिका सप्ट कर दी , “ मैं जो कर रहा हूं और जो कह रहा हूं वह आर्चबिशप की शुद धार्मिक भूमिका है । धर्म ्यमद अन्या्य व दमन के खिलाफ नहीं बोलेगा तो धर्म ही नहीं रह जाएगा ।” वेटिकन के लिए भी आर्चबिशप की इस भूमिका में हसतक्ेप करना मुसशकल हो ग्या ।
नैतिकता और दृढ़ता को बनाया हथियार
रंगभेदी शासन के तमाम जुलमों की उनहोंने मुखालफत की । वे नहीं होते तो उन जुलमों का हमें पता भी नहीं चलता । वे चर्च से जुडे संभवत : पहले व्यसकत थे जिनहोंने दमक्र अफ्ीका की चुनी हुई शिेत सरकार की तुलना जर्मनी के नामज्यों से की और संसार की तमाम शिेत सरकारों को लमज्त कर , लाचार मक्या कि वे दमक्र अफ्ीका की रंगभेदी सरकार पर आर्थिक प्मतबंध कडा भी करें तथा सच्चा भी करें । हम डेसमंड टूटू को पढें ्या सुनें तो हम पाएंगे कि वे उरिता से नहीं , दृढता से अपनी बात रखते थे । उनकी मजामक्या शैली के पीछे एक मजबूत नैतिक मन था जिसे खुद पर पूरा भरोसा था । इसलिए सत्ता जानती थी कि उनकी बातों को काटना संभव नहीं है ; कहने वाले को झुकाना संभव नहीं है । नैतिक शसकत कितनी धारदार हो सकती है , इसे पहचानने में हम गांधी के संदर्भ में अकसर विफल हो जाते हैं क्योंकि उसे पहचानने , सुनने व समझने के लिए भी किसी दजजे के नैतिक साहस की जरूरत होती है । डेसमंड टूटू में ्यह साहस था । वे शिेत सरकार के छद्म का पर्दाफाश करने में लगे रहे तो वे ही आंदोलकारर्यों की शारीरिक देखभाल व आर्थिक मदद आदि में भी समक्र्य रहे ।
रंगभेद की मानसिकता बदलने में सफल
नेलसन मंडेला ने जब दमक्र अफ्ीका की बागडोर संभाली तो रंगभेद की मानसिकता बदलने का वह अद्भुत प्रयोग मक्या जिसमें पराजित शिेत रा्ट्रपति दि ’ कलाक्फ उनके उप- रा्ट्रपति बन कर साथ आए । फिर ‘ ट्रुथ एंड रिकौंसिलिएशन कमिटी ’ का गठन मक्या ग्या जिसके पीछे मूल भावना ्यह थी कि अत्याचार व अनाचार शिेत-अशिेत नहीं होता है । सभी अपनी गलमत्यों को पहचानें , कबूल करें , डंड भुगतें तथा साथ चलने का रासता खोजें ।
सामाजिक जीवन का ्यह अपूर्व प्रयोग था । अशिेत-शिेत मंडेला-कलाक्फ की जोडी ने डेसमंड टूटू को इस अनोखे प्रयोग का अध्यक् मनोनीत मक्या । दोनों ने पहचाना कि देश में उनके अलावा कोई है नहीं कि जो उमविग्नता से ऊपर उठ कर , समति की भूमिका से हर मामले पर विचार कर सके । सत्य के प्रयोग हमेशा ही दोधारी तलवार होते हैं । ऐसा ही इस कमीशन के साथ भी हुआ । सत्य के निशाने पर मंडेला की सत्ता भी आई । अफ्ीकन नेशनल कांरिेस की आलोचना भी डेसमंड टूटू ने उसी साहस व बेबाकी से की जो हमेशा उनकी पहचान रही थी ।
कई अधूरे सपने छोड़ गए टूटू
सत्ता व सत्य का नाता कितना सतही होता है , ्यह आजादी के बाद गांधी के संदर्भ में हमने देखा ही था ; अब डेसमंड टूटू ने भी वही देखा । लेकिन कमाल ्यह हुआ कि टूटू इस अनुभव के बाद भी न कटछु हुए , न निराश ! बिशप के अपने चोगे में लिपटे टूटू खिलखिलाहट के साथ अपनी बात कहते ही रहे । अपने परम ममत् दलाई लामा के दमक्र अफ्ीका आने के सवाल पर सत्ता से उनकी तनातनी बहुत तीखी हुई । सत्ता नहीं चाहती थी कि दलाई लामा वहां आएं ; टूटू किसी भी हाल में ‘ संसार के लिए आशा के इस सितारे ’ को अपने देश में लाना चाहते थे । आखिरी सामना राष्ट्रीय पुलिस प्मुख के दफतर पर हुआ जिसने बडी हिकारत से उनसे कहा , “ मुंह बंद करो और अपने घर बैठो !” डेसमंड टूटू ने शांत मन से , सं्यत सिर में कहा , “ लेकिन मैं तुमको बता दूं कि वे बनावटी क्राइसट नहीं हैं !” डेसमंड टूटू ने अंतिम सांस तक न सं्यम छोडा , न सत्य ! गांधी की तरह वे भी ्यह कह गए कि ्यह मेरे सपनों का दमक्र अफ्ीका नहीं है । भले डेसमंड टूटू का सपना पूरा नहीं हुआ लेकिन वे हमारे लिए बहुत सारे सपने छोड गए हैं जिनहें पूरा कर हम उनहें भी और खुद को भी परिपूर्ण बना सकते हैं ।
( लेखक गांधी शांति प्रतिष्ाि के अधयक्ष हैं )
42 दलित आं दोलन पत्रिका iQjojh 2022