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तो लगभग 9 करोड़ आदिवासियों और 2 करोड़ वनाश्रित समुदायों को विशवास था कि उनके जंगल और जमीन अब फिर उनके अपने होंगे । लेकिन इस कानून के 15 बरसों बाद भी मारि 22 फीसदी लोगों को आधे-अधूरे अधिकार मिल पाना , उस राजयतंरि के प्रति संदेह खड़ा करता है जिसकी नीयत पर भरोसा करके इस कानून को लागू करने की बागडोर सौंपी गयी थी । ऐतिहासिक वनाधिकार कानून के प्रगतिशील प्रावधानों के बावजूद करोड़ों आदिवासी , अपने आवेदन लिये कतारबद्ध खड़छे हैं । उनका दोष मारि इतना ही है कि अब तक वे उस राजयवयव्था से उममीदग्र्त हैं - आदिवासियों के प्रति जिस
राजय की प्रतिबद्धता ही संदिगध है । महामहिम , आप दशकों से ’ आदिवासी ्विासन ’ का ख़वाब देखते उन आदिवासियों को अपनी जमीन और जंगल हासिल करने में निर्णायक भूमिका निभायेंगी ऐसा हमारा विशवास है ।
वंचितों को मिले सम्ानपूर्ण बराबरमी
अच्ा होता भारत की ्वाधीनता के बाद देश के प्रधानमंरिी और राष्ट्रपति , समाज के सीमानत समुदायों से निर्वाचित किये जाते - कदाचित तब उनहें 75 बरसों की प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ती । कम से कम संविधान में दर्ज
समानता की संहिताओं को तो कोई तार-तार नहीं कर पाता । लाखों-करोड़ों आदिवासियों को वयव्था के समक्ष बलि तो नहीं देनी पड़ती । हजारों निदवोष आदिवासियों की तक्मत में जेल और गोलियों की यातनायें तो नहीं होतीं । ्वाधीन भारत में 75 बरसों के बाद आदिवासी समाज और वंचितों के प्रतिनिधि के रूप में आपका संविधान के सववोच्च संरक्षक के रूप में आना एक ऐतिहासिक अवसर तो निःसंदेह है ही , लेकिन उससे भी कहीं अधिक उममीदों का नया इतिहास लिखने का वक़्त भी है जिसकी प्रथम संज्ा और सर्वनाम आप हैं - ‘ महामहिम द्ौपदी मुर्मू जी ।’ �
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