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वयव्था है कि सबसे जयादा श्रम करने वाला वर्ग जू्ठि खाने पर मज़बूर है ?
महिलाएं झेलतमी हैं दोहरा शोषण
भारत में ्रिी-शोषण का इतिहास बहुत पुराना है । इस शोषण का ज़िममेदार पुरुषवादी वयव्था है । ्रिी-शोषण की इस प्रक्रिया को ्थाई और सव्य्वीकृत बनाने में ्रिी-विरोधी अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों की अग्रिम एवं निर्णायक भूमिका रही है । शोषण और गुलामी की इस लमबी प्रक्रिया के बीच ्रिी-्वाधीनता के ्वर साहितय और जीवन में उभरते रहे हैं । लेकिन इन ्वरों को पितृसत्ा द्ारा निर्णायक परिणिति तक कभी नहीं पहुँचने दिया गया । डॉ . संतोष कुमार बघेल के अनुसार , “ जब से मानव समाज की उतपतत् हुई तभी से महिलाओं के प्रति जो सोच बनी वह अधिकांशतः भोग-विलास , संतानोतपतत् का साधन मारि ही रही ।” भारतीय समाज पुरुष प्रधान होने के कारण हमेशा से ्रिी को दोयम दर्जा देता रहा है । इस तरह कहा जा सकता है कि हर एक वर्ग की स्रियों को शोषण और अपमान से रूबरू होना पड़ता है । फिर भी दलित वर्ग की स्रियों की दशा पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि उनकी हालत जयादा बदतर है । वह अ्पृशयता का शिकार है , निर्धनता की पीड़ा से ग्रसित भी है साथ ही बेगार के लिए घर से बाहर जाने पर विवश भी है । ओमप्रकाश वा्मीतक ने अपनी आतमकथा में एक बेबस ्रिी की दयनीय दशा का मार्मिक चिरिण किया है , जिसके साथ दो पुरुष पूरी रात बलातकार करते रहे । यह घटना उनके लिए काफी पीड़ादायक रही । इस पीड़ा को वय्त करते हुए उनहोंने लिखा है- “ मुजफफरनगर की घटना मेरे मन में हमेशा सवाल बनकर खड़ी रही । बारह-तेरह वर्ष उम्र का यह अनुभव मेरे लिए पीड़ादायक रहा है । क्षण भर के लिए उस ्रिी की छवि बार-बार आंखों के सामने आ जाती है जिसे दो भेतड़ए रात भर झिंझोड़ते रहे । सुबह तक उसमें कुछ बचा भी था या नहीं , यह मेरे लिए हमेशा सवाल ही रहा ।” आतमकथा में अनेक ऐसे प्रसंगों का
उ्िेख हुआ है जिनमें दलित ्रिी की पीड़ादायक जीवन दशा के विविध आयामों का चिरिण हुआ है । ‘ दलित साहितय और ्रिी चिरिण ’ पर भँवरलाल मीणा से बातचीत के दौरान ओमप्रकाश वा्मीतक कहते हैं कि , “ यदि ्रिी की वेदना को दलित साहितय नहीं समझ रहा है , तो उसका एक पक्ष कमज़ोर हुआ है । दलित साहितय का जो एक बेसिक कांसेपर है , उसकी अंतरंगता है जिसको कहना चाहिए आनतरिक चेतना है उसमें ये फिट नहीं बै्ठेंगे तो दलित साहितय कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।” इसीलिए ओमप्रकाश वा्मीतक के समपूण्य साहितय में ्रिी वेदना दृष्टिगोचर होती है । यह ्पष्र है कि ्रिी जीवन सहज नहीं है
बल्क वह परिवार , समाज , कार्यक्षेरि आदि विभिन्न ्थािों पर लिंग भेद , जाति-भेद , गरीबी , अशिक्षा , अंधविशवास एवं अनेक सामाजिक कुरीतियों के बहाने प्रतातड़त होती हैं । ‘ जू्ठि ’ आतमकथा में ऐसे कई प्रसंग हैं जो अनेक सवाल खड़े करते हैं । ये सवाल उनसे है जिनके हाथों में समाज की वयव्था का दारोमदार है । वह कब तक स्रियों को गिद्ध की तरह झपटते रहेंगे । यह सवाल उन मां-बाप के लिए भी है जो ्रिी को बचपन से ही दोयम दजवे का समझ कर भेदभाव करते हैं और उन स्रियों से भी सवाल है जो शिक्षा प्रापत करने के बावजूद भी खामोशी से अतयािार को सहती हैं और इसे ही अपनी नियति मानती हैं । �
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