lekt
पूनम तदुषामड़ : शिक्ा से
लिखी सफलता की गाथा
जातीय भेदभाव के जिंदा जख्ों की टीस बरकरार जुझारू दलित लड़की समाज के गले कै से उतरती ?
ने उसे चखा तक नहीं ।
गिने-चुने लोग हमी दोस् बने
मैं खेलककूद , गीत कविता , कहानी से लेकर नृतय तक की प्रतियोगिताओं में भाग लेती , पर तमाम प्रशंसा के बाद भी मुझे पुर्कार को मुझसे दूर रखा जाता । मैं खुद को दूध से निकाली गई म्खी की तरह तड़पता देखती । मैं कोशिश करती कि सभी मुझे भी उसी तरह सममाि दें , उतने ही पयार से देखें , पास बै्ठाएं और वैसा ही बर्ताव करें , जैसा वे दूसरों के साथ करते हैं , लेकिन ऐसा ्यों नही हुआ , यह मैं आज तक
मीना
^eSa
डॉ . पूनम तुषामड़ हूं । आप सब मुझे आज इसी रूप में जानते हैं , लेकिन पूनम तुषामड़ जिस जाति या समुदाय से संबंध रखती हैं उसे 21वीं सदी में भी नफरत और हिकारत से देखा जाता है । दलित समुदाय में भी वा्मीतक कहे जाने वाली जिस जाति से मैं हूं , उस जाति के बच्चों का बचपन कितने कटु अनुभवों से भरा होता है , इसका अंदाजा कोई दलित समाज का वयस्त ही लगा सकता है ।’
समाज की जाति से जुड़ी सड़ी-गली सोच पर प्रहार करती और बचपन में मिले बुरे अनुभवों को साझा करती तद्िी विशवतवद्ािय में प्रोफेसर डॉ . पूनम तुषामड़ कहती हैं कि मैं जब छोटी बच्ची थी , पढ़िे-लिखने में बहुत होशियार थी , लेकिन जाति की वजह से होने वाला भेदभाव हमेशा मेरे साथ चिपक कर चलता । मेरे सभी तमरि या सहपा्ठी जो दूसरी जाति के थे , मुझे पसंद भी करते थे , उनहोंने भी कभी मेरे साथ खाना नहीं खाया । स्कूल में किसी कॉसमपतरिि में अगर कुछ बनाकर भी ले गई तो , वहां टीचर्स
नहीं समझ सकी और शायद कोई मुझे समझा भी नहीं पाएगा , ्योंकि मैं जिस दर्द से गुजरी हूं , उस दर्द का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता । यही वजह है कि गिने-चुने लोग ही मेरे दो्त बने ।
आंटमी नमस्े करने से मना करतीं
स्कूल जाते व्त सड़क पर झाड़ू लगाने वाली आंटी को नम्ते कहती तो वह सड़क के कोने पर ले जाकर मुझे समझातीं- ‘ देख बेटी
44 vxLr 2022