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जी सकता था ।” आतमकथा ‘ जू्ठि ’ में दलितों के घरों के आर्थिक विषमताओं एवं सम्याओं का सजीव चिरिण हुआ है । इतना सब कुछ करने के बावजूद भी दो व्त की भरपेट रोटी नहीं मिलती जिसकी वजह से चुहड़ा जाति के लोग मरे हुए जानवरों को उ्ठाते तथा उनकी खाल बेचकर कुछ धन कमाते । मरे हुए पशु को उ्ठाकर उसकी खाल उतारना बड़ा ही घिनौना व घृणा पैदा करने वाला कार्य होता था ।
सामाजिक व्यवस्ा की दुर्बलताओं का उल्ेख
लेखक ने इस संबंध में एक घटना का उ्िेख किया है । एकबार ब्ह्मदेव तगा का बैल मर जाता है तो लेखक की माँ लेखक को चाचा के साथ बैल उ्ठाने के लिए भेज देती है । चाचा ने छुरी लेखक के हाथ में पकड़ा कर खाल
उतारने की हिदायत दी । ओमप्रकाश वा्मीतक के जीवन का यह पहला घिनौना अनुभव था जिसे ना चाहते हुए भी कुछ पैसों की लालसा में उनहें करना पड़ा । खाल की ग्ठरी को सिर पर उ्ठा कर जैसे-तैसे ब्ती में लाना पड़ा । ओमप्रकाश वा्मीतक इस कार्य को करते हुए शारीरिक व मानसिक रूप से पूरी तरह से टूट गए जिसका ज़िक्र करते हुए वह लिखते हैं कि- “ मुझे उस हाल में देखकर माँ रो पड़ी थी । मैं सिर से पांव तक गंदगी से भरा हुआ था । कपड़ों पर खून के ध्बे साफ दिखाई पड़ रहे थे । बड़ी भाभी ने उस रोज मां से कहा था , ‘ इनसे यह ना कराओ … भूखे रह लेंगे । इनहें इस गंदगी में न घसीटो ।’ मैं इस गंदगी से बाहर निकल आया हूं , लेकिन लोग आज भी उस घिनौनी जिंदगी को जी रहे हैं ।” आतमकथा जू्ठि में निम्न वर्ग की आर्थिक नीतियों का तव्तृत विवरण लेखक
ने प्र्तुत किया है जो भारतीय सामाजिक वयव्था की आंतरिक दुर्बलताओं का उ्िेख करती हैं जिसमें दलित समाज के लोग अपने पेट की भूख शांत करने की लालसा व अपनी आर्थिक मजबूरियों के तहत सवर्ण समाज के जु्मों व अतयािार को सहते हुए अपमानजनक कार्य करने को विवश हैं । जू्ठि आतमकथा में लेखक ने भूमिहीनता के कारण दलितों की आर्थिक मजबूरी और भू्वातमयों की शोषणकारी बेगार प्रथा से मुक्त के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है ।
दलित समाज की आजथमिक स्थिति का बेबाक चित्रण
आर्थिक बदहाली दलित वर्ग की एक प्रमुख सम्या रही है । एक तरफ जात-पात ने तो दूसरी ओर गरीबी ने दलितों का जीवन कष्टकर बना दिया था । न उनहें पहनने के लिए उचित कपड़े उपि्ध हो सके , न भरपेट भोजन और न ही उत्म आवास । मारि भोजन की वयव्था के लिए दिन-दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती । आर्थिक अभाव के कारण अतयंत कष्टप्रद जीवन जीने को बाधय होना पड़ा । ओमप्रकाश वा्मीतक ने अपनी आतमकथा ‘ जू्ठि ’ में दलित समाज की आर्थिक स्थति का बेबाक चिरिण प्र्तुत किया है । भंगी जाति के लोगों के घरों की स्थति दयनीय ही रहती थी । जब कहीं शादी-्याह होते तो भंगी समुदाय की महिलाएँ उनके घर जाकर जू्ठी पत्िें उ्ठाकर अपने टोकरे में भर लेतीं । इस बचे हुए जू्ठि को घर लाकर इकट्ा कर लेती थीं । ये जू्ठि दलितों के घरों में बड़े चटखारे के साथ खाए जाते थे । इसके अलावा घरों एवं खेतों में दिन रात काम करना पड़ता । काम के बदले बासी जू्ठि ही प्रापत होती । दिन रात का मेहनताना केवल जू्ठि ही मिलता जिसको प्रापत करके संतुष्ट होना पड़ता था । लेखक इस जू्ठि की पीड़ा को वय्त करते हुए आतमकथा में लिखते हैं कि , “ दिन रात मर- खपकर भी हमारे पसीने की कीमत मारि जू्ठि , फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं । कोई ितमांदगी नहीं । कोई पशिाताप नहीं ।” यह कैसी
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