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रही है कि जातियां और उनके बीच होने वाले भेद तो गांव में होते हैं , ्योंकि वहां अनपढ़ और सीमित दायरे में बंधे हुए लोग रहते हैं । दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है , इसका उनहें पता नहीं होता है । शहर में सभी जातियों के लोग रहते हैं । पढ़छे-लिखे भी होते हैं । उनका वा्ता तव्तृत परिवेश से होता है । अनेक प्रगतिशील विचारधाराओं के संपर्क में भी रहे होते हैं । यहां जातियों के टोले-मोह्िे नहीं होते । कम से कम शारीरिक अ्पृशयता तो नहीं होती है । हालांकि सवर्ण जातियों ने अछूत कही जाने वाली दलित जातियों के घरों में आना-जाना और खानपान के बंधनों को तोड़ा है । मगर फिर भी अ्पृशयता के भु्तभोगियों की कमी नहीं है , बहुतों ने इसे देखी और महसूस की है और अब तक देखते रहे हैं । शहरों में समता का एक रूप माल , होटल रे्तरांओं में देखा जाता रहा है । कौन किसके बगल में बै्ठ कर खा रहा है ? कौन खाना बना रहा है ? कौन परोस रहा है ? लोगों
को इससे जयादा फर्क नहीं पड़ता । हां , होटल , रे्तरां के नाम में अछूत मानी जाने वाली संज्ाओं
को ्वीकार्यता अभी नहीं मिली है , मगर इतना तो इतमीिान से कहा जा सकता है कि भारत में जाति-भेद की जकड़न आजादी के बाद शहरों में ढीली अवशय हुई है ।
परिवेश परिवर्तन का सकारात्मक प्रभाव
पिछले पच्चीस-तीस वषगों में गांव से दलितों- पिछड़ों और मुसलमानों का महानगरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ा है । इसके अनेक कारण हैं । प्रमुख कारण विकास और तर्की के अवसरों की तलाश को भी कहा जा सकता है और गांवों के मुकाबले शहरों में सुविधा और संसाधनों की प्रचुरता को भी माना जा सकता है । लेकिन इस वा्ततवकता की अनदेखी नहीं की जा सकती कि गांव में बेरोजगारी भी एक कारक है , जिसके कारण वंचित वर्ग गांव छोड़ने को मजबूर होता है । हालांकि वह वर्ग शहरों में पानी और शौच जैसी अति बुनियादी
आवशयकताओं से भी युद्धरत रहता है लेकिन राजगार की तलाश में गांवों से शहरों और
महानगरों की ओर पलायन करने की विवशता सभी जातियों की साझा है । इस साझा सम्या का सामूहिक समाधान ही जातिगत भेदभाव की सोच से ऊपर उ्ठ कर देखने और समतामूलक समरस समाज की अवधारणा को ्वीकार करने की जमीन तैयार करता है । लिहाजा पलायन का सकारातमक पहलू जातिगत भेदभाव से उबरने की सोच के विकास और तव्तार में देखा जा सकता है ।
मानिमीय गरिमा की हो गारंटमी
अब सवाल है कि हाल ही में खाना पहुंचाने वाले लड़के के साथ घटी घटना के बाद ्या वह कंपनी दलित यानी अ्पृशय , बहिष्कृत या वंचित कही जाने वाली जातियों के लड़के- लड़कियों को नौकरी पर रखेगी ? अगर नहीं , तो यह अकेली कंपनी नहीं होगी जो इनहें नौकरी से बाहर करेगी । इसी तरह की और कंपनियां इस वयवहार को नहीं अपनाएंगी , इसकी ्या गारंटी है ! दूसरा प्रश्न यह है कि आज एक ग्राहक ने दलित कर्मचारी से खाना लेने से मना कर दिया । कल को कोई सवर्ण कर्मचारी या उसी जैसी कंपनी का कर्मचारी किसी दलित के घर खाना देने या रे्तरां में बै्ठिे से भी मना कर सकता है । यह संवैधानिक रूप से अनुचित है । सवाल यह भी है कि शहरों में रहने वाले शिक्षित लोगों के बारे में जो सुधारातमक , समतापरक और सौहार्द का वातावरण था , ्या वह नहीं बिगड़ रहा है ? ्या अब यह मान लिया जाए कि जाति-भेद का संबंध शिक्षित और अशिक्षित , गांव और शहरों से नहीं है ? इसका संबध मनुष्य की प्रवृतत् से है । जो भी हो , यह खाना पहुंचाने वाली घटना राष्ट्र के हित में तो तब्कुि नहीं है । किसी के साथ किसी के द्ारा किसी तरह का भेदभाव और मानवीय गरिमा को ्ठछेस पहुंचाने वाला कृतय निंदनीय है । आवशयक है कि जातिगत भेदभाव के इस बदलते ्वरूप की अनदेखी ना की जाए और इस मानसिकता को जड़ें जमाने का मौका मिलने से पहले ही इसके प्रति जागरूकता के सुधारातमक उपाय किए जाएं । �
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