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दलित उत्मीड़न : बदलते दरौर में बदलता स्वरूप महानगरों में मौजूद कस्ाई कलुषित मानसिकता मन की गांठें खोलने के लिए जागरूकता जरूरी
शहरों में जातियों के टोले-मोहल्े नहीं होते । कम से कम शारीरिक अस्ृश्यता तो नहीं होती है । हालांकि सवर्ण जातियों ने अछू त कही जाने वाली दलित जातियों के घरों में आना-जाना और खानपान के बंधनों को तोड़ा है । मगर फिर भी अस्ृश्यता के भुक्तभोगियों की कमी नहीं है , बहुतों ने इसे देखी और महसूस की है और अब तक देखते रहे हैं ।
रजत रानी मीनयू gk
ल ही में एक खबर समाचार परिों और सोशल मीडिया पर सुर्खियों में बनी रही । कथित ऊंची जाति के एक वयस्त ने खाना पहुंचाने वाली एक नामी कंपनी के लड़के से खाना लेने से पहले उसका नाम और जाति पूछी । जब उसे पता चला कि वह दलित है , तो उससे न सिर्फ खाना लेने से मना कर दिया , बल्क उसने खाने का आदेश रद्द करने की बात नियमत : की । फिर उसकी जाति को गरियाते हुए उसके मुंह पर थूक भी दिया । इस घटना के निहितार्थ सामानय नहीं हैं । इसके परिणाम दूरगामी और असंतोषजनक हैं । अनेक सवाल खड़छे करते हैं । यह घटना मानवीय गरिमा की रक्षा के सांविधानिक प्रावधान पर सवाल खड़छे करती है । ्वाभाविक ही राष्ट्रीय मानवता अधिकार आयोग से अपेक्षा की गई कि वह इस घटना का संज्ाि लेकर अपने दायितव का निर्वाह करे ।
ग्ाममीर समाजिक संरचना में
जातिगत भेदभाव
जिन लोगों ने गांवों का जीवन देखा और नजदीक से अनुभव किया है , वे जानते होंगे कि वहां भाईचारा और सामूहिकता की सं्कृति जातियों के समूह के रूप में मौजूद रहती है । बाकी जातियां एक-दूसरे से मिलती हैं , मगर अछूत और सछूत , जिसे आज की भाषा में दलित , गैरदलित , अवर्ण और सवर्ण कह सकते हैं , नाम कुछ भी दिए जा सकते हैं । बात भावनाओं , आचार-विचार और रहन-सहन की है । गांव में अछूत और सछूत एक मोह्िे में नहीं रहते हैं । उनके साथ खानपान भी नहीं होते हैं । अपवादों की बात नहीं हो रही । राहगीर से रा्ता चलते उनका टोला पूछ कर उनकी जाति का पता लगाने की सामानय रिवायत रही है । डा . आंबेडकर ने भी कहा था कि ‘ भारत के गांव बहिष्कृत जातियों के लिए कारागार बने हुए हैं । इससे मु्त होने के लिए उनहें गांव छोड़ देना चाहिए ।’ मगर शहरों का वातावरण गांव की अपेक्षा एकदम अलग और सुधरा हुआ माना जाता रहा है ।
शहरों में ढ़मीिमी पड़तमी जाति भेद की जकड़न
इस बात की चर्चा शहरों और गांव में होती
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