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मुस्लिम समाजिक संरचना की विविधता
भारत में इ्िाम के प्रसार की दो प्रवृतत्यां रही हैं , जिनके आपसी रिशतों से एक जटिल जाति-वयव्था का जनम हुआ । पहली प्रवृतत् मुस्िम समुदायों का मधय-एशिया से आकर भारत में बसने से संबंधित है । ऐतिहासिक खोजें , विशेषकर हाल में हुए विशिेषणों से यह ्पष्र हुआ है कि अनेक मुस्िम समुदाय एक सतत चलने वाली अतयंत धीमी प्रक्रिया के तहत कई शताब्दयों तक भारत में आकर बसते रहे । यह प्रक्रिया इतनी धीमी थी कि इसके कारण ततकािीन समाज में कोई आमूल सामाजिक- सां्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ । इ्िाम के
सिद्धांतों का आतमसातीकरण होता चला गया । रिचर्ड ईटन का मधयकालीन बंगाल पर किया गया शोध बताता है कि हिंदुओं द्ारा इ्िाम अपनाने के पी्छे न तो सामाजिक नयाय के विमर्श जैसा कुछ था , और ना ही कोई ख़ास राजनीतिक ललक । धार्मिक विविधताओं से भरे इस भौगोलिक-सां्कृतिक क्षेरि में मौजूद बहुत से अनय धार्मिक विक्पों में से एक विक्प इ्िाम भी था । इ्िाम का चयन न तो पुराने धार्मिक संदभगों को छोड़कर किया जा सकता था और ना ही इ्िाम के भीतर मौजूद एकेशवरवाद जैसी आधयासतमक संरचनाओं को ख़ारिज करके । ऐसे में जिन हिंदुओं ने इ्िाम ्वीकार किया , उनहोंने न तो अपनी ्थािीय रीतियों को छोड़ा और ना ही एकेशवरवाद को नकारा । तदिि्प बात यह
है कि इ्िाम का प्रसार निम्न और मधय जातियों में ज़यादा हुआ । इसका सीधा कारण यह था कि इन जातियों में उच्च कही जाने वाली जातियों की तुलना में रीति-रिवाज़ों और आ्थाओं में अपेक्षित खुलापन था । इन जातियों के लिए इ्िामी सिद्धांतों का जातीकरण संभव था । इस तरह हरेक जाति ने , जो बाद में मुस्िम बिरादरियां ( विशेषकर उत्र भारत में ) कही जाने लगीं , अपने-अपने ढंग से इ्िामी आ्थाओं को परिभाषित किया । मधय एशिया से आये विविध मुसलमान समुदायों और भारतीय मुस्िम बिरादरियों के आपसी रिशतों ने मुस्िम जाति-प्रथा को जनम दिया । दोनों तरह की सामाजिक संरचनाओं के भीतर भी अनेक विविधताएँ थीं । उदाहरण के लिए मधय एशियाई और अरब से संबंध रखने वाले समुदायों के बीच भी उतनी ही दूरियाँ थीं , जितनी कि मुस्िम बिरादरियों में । हालांकि मधय एशियाई समुदाय शेख़ , मुग़ल और प्ठान शासक वर्ग में बदल गये , परंतु यह कहना ्ठीक नहीं होगा कि उनके राजनीतिक वि्य्व से ही जाति वयव्था में ऊंच-नीच तय हुई । मुस्िम जाति वयव्था में ऊंच-नीच की शुरुआत पर अभी तक कोई ऐतिहासिक विशिेषण नहीं किया गया है । ऐसे में मधययुगीन साहितय , विशेषकर मुस्िम शासकों द्ारा लिखवाया गया साहितय ही एक संभव स्ोत है ।
मुसलमानों में ऊं च-नमीच की अवधारणा
तुर्क-ए-फ़िरोज़िाही से लेकर आइने-अकबरी तक जैसे ग्रंथ हमें बताते है कि मुस्िम समुदायों में जाति और कबीलाई पहचान के दो प्रमुख पैमाने हैं । ऐसे में समुदाय का पेशा और वि्य्व के आधार पर उनका सामाजिक मू्य तय हो सकते थे । यही वजह है कि अट्ारहवीं और उन्नीसवीं सदी में कुछ समुदायों के लिए ‘ अशराफ़ ’ ( जो शरीफ़ हों ) कुछ के लिए ‘ अजलाफ़ ’ ( ज़िील से संबद्ध ) और कुछ के लिए ‘ अरज़ाि ’ ि्द प्रयु्त होता है । यहां दो ्पष्रीकरण ज़रूरी हैं । पहला , इन श्रेणियों का
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