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इ्तेमाल औपनिवेशिक युग के शुरुआती दौर मे ख़ूब होता होता दिखता है । इसलिए मुस्िम जाति-विमर्श और औपनिवेशिक आधुनिकता का संबंध जातियों केऊंच-नीच के विशिेषण में एक अहम कड़ी है । इसका ्पष्रीकरण मुस्िम समाजों में परंपरागत पेशों से ता्िुक रखता है । पेशों की ऊंच-नीच अशराफ़ और अरज़ाि श्रेणियों का अवधारणातमक क्षेरि तय करती है । मसलन नाई , जुलाहे और बढ़ई का काम करने वाले मुसलमान , अजलाफ़ श्रेणी में माने गये , जबकि मधय-एशियाई समुदाय जो कि मूलतः वयापार से संबंध रखते थे , अशराफ़ बन गये । हिंदू जाति-वयव्था की तरह यहां भी पेशा जाति बनता चला गया । अशराफ़ व अज़िाफ़ की दूरियों का सबसे सटीक चिरिण उन्नीसवीं सदी की रचनाओं से मिलता है । सैयद अहमद ख़ाँसे लेकर शीर्ष के कई उलेमा प्रतयक्ष और अप्रतयक्ष तौर पर मुस्िम जाति-वयव्था के समर्थक बन गये । सैयद अहमद ने तो जुलाहों को बदज़ात तक कहा और 1857 के सिपाही विद्ोह का ज़िममेदार ्ठहराया । इस तरह इ्िाम की जाति- वयव्था का आधुनिक राजनीति से सीधा रिशता जुड़ गया । बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में पूवटी उत्र प्रदेश और बिहार में जातिगत संग्ठि विशेषकर पिछड़छे मुसलमानों के संग्ठि बनने शुरू हुए । 1930 के दशक में बनी मोमिन कांफ्ेंस इसका एक अहम उदाहरण है । कांफ्ेंस मूलतः जुलाहा समुदाय से संबंधित थी और इसका रुझान कांग्रेस की समनवयकारी राजनीति की तरफ़ था । यही कारण था कि आज़ादी के बाद मोमिन कांफ्ेंस कांग्रेस के प्रसार में पूरी तरह छिप गई ।
‘ दलित-पिछड़े मुस्लिम ’ का राजनमीवतक विमर्श 1960 और 1970 के दशकों में मुसलमानों की पिछड़ी जातियों का दायरा सामाजिक- सां्कृतिक क्षेरिों तक सीमित रहा । इसका एक बड़ा कारण भारतीय संवैधानिक विमर्श द्ारा मुसलमानों को एक राजनीतिक इकाई मानने से भी जुड़ा था । उदाहरण के लिए 29 जनवरी ,
पसमांदा मुसलमानों का राजनमीवतक दबदबा
भारतीय राजनीति में ' पसमांदा मुसलमान ' ि्द के इ्तेमाल का श्रेय जनता दल यूनाइरछेड के टिकट पर दो बार राजयसभा सद्य रहे अली अनवर को जाता है । उनहोंने 1990 के दशक में बिहार में ऑल इंडिया पचवारा मुस्िम महज नामक संग्ठि बनाकर पसमांदा मुसलमानों को राजनीति में उनका वाजिब हक दिलाने की शुरुआत की थी । 2006 में राजयसभा सांसद सद्य बनने के बाद अली अनवर ने उत्र प्रदेश में भी पसमांदा मुसलमानों को एकजुट करके उनहें एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश शुरू की थी । उत्र प्रदेश में भी ' पसमांदा फ्ंर ' जैसे संग्ठिों ने पसमांदा मुसलमानों को एकजुट करने के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया है । उत्र प्रदेश में आपसी बिखराव और एक दूसरे से खींचतान के चलते पसमांदा आंदोलन उस तरह का असर नहीं दिखा पाया जैसे कि उसने बिहार में दिखाया था । लेकिन पिछले एक दशक में पसमांदा मुसलमानों ने उत्र प्रदेश की राजनीति में काफी उलटफेर किया है । इसकी वजह से ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत के चुनावों तक और ्थािीय निकायों से लेकर विधानसभा चुनाव तक में इसका असर देखने को मिला है । बीजेपी में पसमांदा मुसलमानों को जोड़िे की सबसे पहली
1953 को गत्ठत काका कालेलकर समिति ने यह तो माना कि मुसलमानों की कुछ जातियां पिछड़ी हैं , लेकिन समिति ने इन जातियों को हिंदू और तस्ख पिछड़ों-दलितों के साथ जोड़कर नहीं देखा । यहां तक कि 1959 के एक अधयादेश से यह भी तय हो गया कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत केवल हिंदुओं और तस्खों में मौजूद दलित जातियां ही आरक्षण का लाभ उ्ठा
कोशिश 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले डॉ एस के जैन ने की थी । डॉ एस के जैन उस समय पारटी में मुसलमानों से जुड़े मुद्दों के प्रभारी थे । उनहोंने कई बार पसमांदा मुस्िम संग्ठिों के साथ बै्ठक करके इस पर विचार विमर्श किया था कि वो पारटी से किन ितगों के साथ जुड़ सकते हैं । 2014 में नरेंद् मोदी के प्रधानमंरिी बनने के बाद बीजेपी ने पहली बार राष्ट्रीय अ्पसंखयक मोर्चा का अधयक्ष अ्दुि रशीद अंसारी को बनाया । बीजेपी ने 2015 में पारटी में शामिल हुए साबिर अली को राष्ट्रीय अ्पसंखयक मोर्चा में महासचिव बनाया और उनहें पसमांदा मुसलमानों को जोड़िे की तज़ममेदारी सौंपी । उत्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सत्ा में वापसी में , छोटी ही सही लेकिन पसमांदा मुसलमानों की भी भूमिका रही । बीजेपी से जुड़े पसमांदा मुसलमानों ने तमाम विषम परिस्थतियों में उसे वोट देकर चुनाव में उसकी स्थति को मजबूत किया । बीजेपी ने मुस्िम बहुल इलाकों के करीब 50,000 बूथों पर पारटी के अ्पसंखयक मोिवे से जुड़े कार्यकर्ताओं को तैनात करके उनहें कम से कम 30 मुस्िम वोट डलवाने की जिममेदारी सौंपी थी । चुनाव के बाद तैयार की गई एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि करीब 25 से 30 सीटों पर बीजेपी को मुस्िम बहुल इलाकों में 2,500 से लेकर 3,000 वोट तक मिले हैं । ये सभी सीटें बीजेपी जीती है ।
सकती हैं । अनय भारतीय मज़हब ( ख़ासकर इ्िाम और ईसाई मत ) इस सूची से बाहर रखे गये । इस प्रकार मुसलमानों में जाति एक संकीर्ण राजनीतिक श्रेणी के तौर पर पुनः ्थातपत हो गयी । 1980 के दशक में मंडल आयोग ने एक नयी शुरुआत की । आयोग ने मुसलमानों के पिछड़छे तबकों को अनय पिछड़छे वर्ग की श्रेणी में रखकर आरक्षण देने की सिफ़ारिश की । इस
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