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दलित-पसमांदा विमर्श : सत्य करें स्ीकार

मुसलमानों का पिछड़ा-दलित समाज मुखर बेपर्दा हो रहा मुसलमानों का जातिगत अं तर्विरोध

अशरफ अली / हिलाल अहमद ck

बरी मस्जद के धवंस के बाद मुसलमान राजनीति का चरररि तय करने मे दलित-पसमंदा मुसलमान विमर्श का योगदान बेहद महतवपूर्ण रहा है । मुसलमानों में मौजूद जाति प्रथा और अंदरूनी विरोधाभासों को आधार बनाकर आंतरिक लोकतंरि की मांग करने वाला यह विमर्श मुसलमानों की पिछड़ी जातियों को हिंदू और तस्ख पिछड़ों और दलितों की तज़्य पर ही संविधानसममत सुविधाएं दिये जाने का पक्षधर है । वर्ष 2006 में सच्चर आयोग की रपट के प्रकाशन के बाद से मुसलमानों के भीतर का पिछड़ा-दलित समाज एक आधिकारिक श्रेणी भी बन गया है । रंगनाथ मिश्र कमीशन ( 2007 ) और अ्पसंखयक आयोग की विभिन्न रपटें इस तरय को उजागर करती हैं कि आरक्षण के सवाल और मुस्िम पिछड़छेपन की सम्याओं को दलित-पिछड़छे मुसलमान के प्रश्न से अलग
करके नहीं देखा जा सकता है । दलित-पिछड़छे मुस्िम ि्द का चलन कोई ख़ास पुराना नहीं है , लेकिन मुसलमानों के भीतर होने वाली जाति-राजनीति , विशेषकर पिछड़ी जातियों के लामबंद होने की प्रक्रिया , आज़ादी से बहुत पहले औपनिवेशिक भारत में शुरू हो गयी थी । वा्तव में भारत में मुसलमान समाज भी जाति-प्रथा से संचालित होता रहा है ।
पहले के दलित हमी हैं आज के पसमांदा
’ पसमांदा ’ फारसी का ि्द है । यह दो ि्दों से मिलकर बना है ’ पस ’ और ’ मांदा ।’ ’ पस ’ का मतलब होता है पी्छे और ’ मांदा ’ का मतलब होता है छूट जाना । इस लिहाज़ से विकास की दौड़ में पी्छे छूट गए लोगों को ’ पसमांदा ’ कहा जाता है । मुस्िम समाज का सामाजिक और
शैक्षिक रूप से पिछड़ा तबक़ा ’ पसमांदा ’ कहलाता है । मुस्िम समाज में पसमांदा मुसलमानों की आबादी 70 से 80 फ़ीसदी मानी जाती है । ये वो मुसलमान हैं जिनके पूर्वज कालांतर में हिंदू समाज के दलित और पिछड़छे वर्ग से धमाांतरण करके मुसलमान बने थे । अरब देशों , अफगानि्ताि और मधय एशिया से आए मुसलमान खुद को भारतीय मुसलमानों से बेहतर समझते हैं । इसलिए उनहें अगड़ या अशराफिया कहा जाता है । मुसलमानों के सैकड़ों साल सत्ा में रहने की वजह से इस तबके का मुस्िम समाज पर दबदबा रहा है । आजादी के बाद मुसलमानों का राजनीतिक नेतृतव भी उनहीं के हाथों में रहा । इसीलिए पसमांदादा मुसलमान राजनीति के हाशिए पर रहे हैं ।
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