नए नाम की जरूरत नहीं है । और ज्द ही वहां भारी भीड़ जमा हो गई , जो हिंसक हो उ्ठी । पुलिस ने ततकाि निषेधाज्ा लगा दी । चंद्बाबू नायडू की तेदेपा सहित तमाम राजनीतिक दलों ने हिंसा की निंदा की है , लेकिन एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में भी उनहोंने देरी नहीं की । राजय सरकार ने नाम बदलने की इस कवायद को सर्वसममति से लिया गया फैसला बताया है । दलितों की तरक्ी से जलन
दलितों के खिलाफ अगड़ी व मधयम जातियों के गु्से को समझना कत्ठि नहीं है । वे उनके अभूतपूर्व सवाांगीण विकास से चिढ़छे हुए हैं । दलित न सिर्फ शिक्षा और रोजगार में बेहतर कर रहे हैं , बल्क राजनीति , कृषि और कारोबार में भी उनकी उचित तह्सेदारी दिखने लगी है । दलितों ने कड़ी मेहनत व दृढ़ संक्प से अपनी यह हैसियत बनाई है । मसलन , एक खेतिहर मजदूर के परिवार में जनम लेने वाले जीएमसी बालयोगी लोकसभा अधयक्ष बने थे । जिस राजयमंरिी पी विशवरूप के घर को आग के हवाले कर दिया गया , उनहोंने विभिन्न सरकारों में 10 वषगों तक मंरिी पद संभाला है । इस समुदाय ने पेशेवर काम-काज में भी अपनी योगयता साबित की है ।
पी राधाकृष्ण आईआईटी , खड़गपुर से एम-रछेक करने के बाद डीआरडीओ में वैज्ातिक हुए । यूपीएससी पास करने के बाद वे कई राजयों व केंद्ीय विभागों में सचिव भी बने ।
अब सामाजिक सम्ान की दरकार
देखा जाए , तो देश के विभिन्न इलाकों में दलितों का उदय विभिन्न रूपों में हो रहा है । सामाजिक सममाि पाने के लिए वे नए-नए रा्ते तलाश रहे हैं , ्योंकि आर्थिक समपन्नता , यहां तक कि सत्ा में तह्सेदारी भी उनको वांछित परिणाम नहीं दे रही है । सामाजिक रूप से अगड़ी और मधयम जातियां उनका विरोध करती रही हैं । तमिलनाडु में मूलत : खेती-बाड़ी करने वाला दलितों का एक वर्ग तो खुद को दलित कहलाना पसंद नहीं करता है । उसने सरकार से गुजारिश करके खुद को अनय पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का अनुरोध किया है । केंद् की भाजपा सरकार इस तरह के कदमों को तरजीह देती है , ्योंकि उसके लिए इसका अर्थ है हिंदुओं का ध्ुवीकरण । उत्र प्रदेश में 1990 के दशक के उत्रार्द्ध में जब राम-जनमभूमि आंदोलन अपने चरम पर था , तब बसपा के सं्थापक कांशीराम
ने भी रामायण के विभिन्न सं्करणों का प्रचार किया था , जिनमें कई पौराणिक कथाओं से उनहोंने दलितों की श्रेष््ठता ्थातपत की थी । हिंदुतव की काट खोजने के लिए उनहोंने शंबूक , एकलवय , रविदास आदि की कहानियां परोसी थीं । अपने उद्देशय में वह सफल भी हुए थे ।
यथावत है दलितों का सवाल
हालांकि , मायावती ने हालिया चुनावों में अलग रा्ता चुना । उनहोंने भाजपा सरकार द्ारा राम मंदिर के निर्माण का खुलकर समर्थन किया और भगवान परशुराम का आह्ाि किया । उनका प्रयास ब्ाह्मण समुदाय को अपनी तरफ लुभाना था । दलित-ब्ाह्मण एकता की वकालत करके वह पहले चुनाव जीत चुकी हैं । हालांकि , इस बार हिंदुतव के मजबूत नैरेटिव के खिलाफ वह सफल न हो सकीं । यही वजह है कि दलितों का सवाल अधर में है । उनका एक बड़ा तह्सा कांग्रेस का हाथ झटक चुका है और भाजपा की ओर ताक रहा है , जो उनकी ओर ‘ समरस ’ का हाथ बढ़ा रही है । जाहिर है , विचार-विमर्श बेशक चल रहा हो , लेकिन कड़वा सच यही है कि दलित समुदाय अब भी सामाजिक सममाि से दूर है । �
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