flusek
न्याय की समझ से दूर मध्मवर्ग , उपभोक्तावयादी बयाजयार की चपेट में उलझ कर रह जयातया है । दलित / आदिवयासी समयाज कया उच्च मध्म वर्ग / मध्म वर्ग जो जनसंख्या अनतुपयात में सवणगों की ततुिनया में कयाफी कम है । एक सवजे के मतुतयालबक देश की कुल संपत्ति कया 41 % सवर्ण समयाज के पयास है , अनतुसूचित जयालत के पयास 7.6 % और जनजयालत के पयास 6.8 % है । आतम केंलद्त मध्मवर्ग कया उपभोक्तावयादी चरित्र , बयाजयार के लिए उपयोगी सयालबत होतया है । इसके बयाद लफ्मों में मध्म वर्ग और उच्च मध्म वर्ग छया जयातया है और इनको केंद् में रखकर ज्यादयातर फ़ि्में बनयाई जयाने लगती हैं ।
धर्म की तरह जयालत भी परमपरयालनष्ठा के संस्कारिक रूप से आधतुलनक भयारत के सयामयालजक मन में मौजूद है । इसलिए भी , व्वसयाल्क लफ्मों के ज्यादयातर नया्क सवर्ण समयाज कया प्रतिनिधितव कर रहे होते हैं । व्वसयाल्कतया लफ्म कया मतुख् उद्ेश् है । ऐसी लस्लत में हम लफ्मों से बहतुत बड़े सयामयालजक परिवर्तन की कयामनया नहीं कर सकते हैं । लेकिन समयाज के नजरिए को बदलने में जिस तरह से फैशन ने अपनी भूमिकया ने निभयाई है , वह भयारतीय संसकृलत को गिोबल बनयातया है । लफ्मी कियाकयारों के प्रभयाव से , कपड़े-पहनयावे को लेकर समयाज में
एक बहतुत बड़ा परिवर्तन निःसंदेह आ्या है । बदियाव कया बयाह्य संस्कार तो सवीकयार लक्या र्या , लेकिन समयाज की बनयावट कया आंतरिक संस्कार बहतुत कम सवीकयार हतुआ है । जहयां लफ्मों के नया्कों के नयाम कया टयाइटल अकसर समयाज के ऊंचे तबके कया होनया ऐसया प्रतिबिंबित करतया है की सिनेमया कया अभी एक बड़ा हिस्सा समयाज के निम्न तबके को उस पयारिवयारिक , एकशन , रोमयांटिक लफ्मों के केंद् में अकसर नहीं देखतया है ।
चूँकि बयाजयार में सवणगों के पूँजी कया प्रभतुतव है । तो ऐसे में किसी दलित के नया्क बनने की संभयावनया बहतुत कम होगी । कुछ लफ्मों कया उदयाहरण लें जिनमें लफ्म दबंग में सलमयान कया ितुिबतुि पयांड़े , अक्् कया रयाउडी रयाठौर , 1993 में आई लफ्म क्लत्र् जैसी नया्क प्रधयान लफ्में , जयातीय अभिमयान को तो दिखयाती हीं है , सया् ही जयालतवयाद की परमपरयारत मयानसिकतया कया महिमयामंडित करके , उसके नया्क कया प्रियार प्रसयार करती है । हिनदी सिनेमया में दलित समयाज के नया्कों की लस्लत उसी तरह है जैसे हमयारे इतिहयास में दलित नया्कों की लस्लत है । वह मौजूद तो है , लेकिन सर्वसवीकृती और प्रलसलद नहीं है । ऐसे में सिनेमया कैसे अछूतया रह सकतया है , जहयां पूंजी की शलकत सवर्ण समयाज के हया्
में है ।
बड़े-बड़े व्वसया्ों में आज भी दलितों कया प्रतिनिधितव नया के बरयाबर है । तभी तो दलित समयाज को परनिर्भर होनया पडतया है कि , कोई प्रगतिशील लनदजेशक जो सवर्ण समयाज से हीं क्ों न आतया हो , वो आए और हम पर लफ्म बनयाएं । लोगों ने बनयाई भी हैं -शेखर कपूर की बैंडिट कवीन , प्रकयाश झया कया आरक्ण आदि । निःसंदेह यह कोशिश सरयाहनीय और प्रेरणया स्ोत है । जिसप्रकयार सत्री कया सशलकतकरण , पतुरुषों की भयारीदयारी और सहयोग से मजबूत बनेरया । कुछ उसी तरह जयालत कया पूवया्गग्रह बड़ी जयालत्ों के सहयोग से कम होतया जयाएरया ।
पूंजी की तयाकत दलित समयाज के पयास नहीं है । अभी रोजी-रोटी और सयामयालजक न्याय के मयामलों में ही फंसया हतुआ है । इसलिए एक्टंर , लनदजेशक , पटक्या लेखन , कोरियोग्रयाफर आदि विधयाओं तक दलित समयाज की पहतुंच सवणगों के अनतुपयात में कयाफी कम है । इसलिए जो हयाि समयाज में है वही हयाि सिनेमया में , प्रतिनिधितव दोनों जगह कम है । समयानयांतर सिनेमया कया एक दौर , जो 50 के दशक में बंरयाि से होकर मतुख्धयारया की हिनदी सिनेमया में आ्या । जहयां “ सत्जीत रे , मृणयाि सेन , बिमल रॉय , रतुरुदत्त से लेकर रतुिजयार , श्याम बेनेगल , मनी कॉल ,
vxLr 2021 दलित आंदोलन पत्रिका 33