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की प्रवृत्ति की कितनी भूमिकया है , यह बतयाने के लिए गैर-ब्राह्मण वरगों की प्रवृत्ति को समझनया होरया , जिनके लिए आज तक इस प्र्या के पोषक रीति-रिवयाज लवद्मयान हैं , हिंदू मलसतषक को इनहोंने जकड़ रखया है और उनहें किसी सहयारे की जरूरत नहीं है , सिवया् सतत विश्वास भयाव के , जैसे एक पोखर में जलकुंभी । एक तरीके से हिंदू समयाज में सती प्र्या , बयालिकया विवयाह और विधवया की यथास्थिति जयालत्ों की हैसियत के हिसयाब से लवद्मयान है , परंततु इन प्र्याओं कया चलन विभिन्न जयालत्ों में असमयान है , जिससे उन जयालत्ों कया भेद पररिलक्त होतया है ( मैं भेद शबद कया प्रयोग टयालडटि्न अर्थ में कर रहया हूं )। जो
जयालत्यां ब्राह्मणों के निकट हैं , वे इन तीनों प्र्याओं की नकल कया कडयाई से पयािन करती हैं । दूसरे जो इनसे कुछ कम निकट हैं , उनमें केवल वैधव् और बयालिकया विवयाह प्रचलित हैं ; अन् जो कुछ और दूरी पर हैं , उनमें केवल बयालिकया विवयाह प्रमतुख हैं त्या सबसे अधिक दूरी वयािे लोग जयालतप्र्या के सिदयांत कया अनतुसरण करते हैं । मैं निःसंदेह कह सकतया हूं कि यह अधूरी नकल इसी प्रकयार है , जैसे टार्डे ने ' दूरी ' बतयाई हैं । आंशिक रूप से यह प्र्याओं कया पाश्विक िक्ण है । यह लस्लत टार्डे के नियम कया पूर्ण उदयाहरण है और इसमें कोई संदेह नहीं रह जयातया कि भयारत में जयालतप्र्या निम्न वर्ग द्वयारया
उच्च वर्ग की नकल कया प्रतिफल है । इस स्थान पर मैं अपने ही पूवनोकत कथन की पतुनरयावृत्ति करनया ियाहूंरया , जो आपके सम्मुख अनया्यास और बिनया समर्थन के उपलस्त हतुआ होरया । मैंने कहया ्या कि इन लवियारयाधीन तीन प्र्याओं के बल पर ब्राह्मणों ने जयालतप्र्या की नींव डयािी । उस लवियार के पीछ़े मेरया तर्क यही ्या कि इन प्र्याओं को अन् वरगों ने वहीं से सीखया है । गैर-ब्राह्मण जयालत्ों में इन रिवयाजों की ब्राह्मणों जैसी नकल- प्रवृत्ति की भूमिकया पर प्रकयाश डयािने के बयाद मेरया कहनया है कि ये प्रवृत्ति उनमें आज भी मौजूद है , ियाहे वे अपनी इस आदत से परिचित भी न हों । यदि इन वरगों ने किसी से सीखया है तो इसकया अर्थ है कि समयाज में उन प्र्याओं कया किसी न किसी वर्ग में प्रचलन रहया होरया और उसकया दजया्ग कयाफी ऊंिया हतुआ होरया , तभी वह दूसरों कया आदर्श हो सकतया है , परंततु किसी ईशवरवयादी समयाज में कोई आदर्श नहीं हो सकतया , सिर्फ ईशवर कया सेवक हो सकतया है ।
इसमें उस कहयानी की पूणया्गहतुलत हो जयाती है कि जो निर्बल थे , जिनहोंने अपने को अलग कर लि्या । हमें अब यह देखनया है कि दूसरों ने अपने लिए उनके दरवयाजे बंद देखकर अपनया घर क्ों बंद कर लि्या । इसे मैं जयालतप्र्या के लनमया्गण की क्रियाविधि की प्रक्रिया मयानतया हूं । यही कयारीगरी थी , क्ोंकि ऐसया अवश्ंभयावी होतया है । यही दृलषटकोण और मयानसिकतया है , जिसके कयारण हमयारे पूर्ववतटी इस विषय की व्याख्या करने से कतरया गए , क्ोंकि उनहोंने जयालत को ही एक अलग ईकयाई मयान लि्या , जबकि वह जयालतप्र्या कया ही एक अंग होती है । इस चूक ्या इस पैनी दृलषट के अभयाव के कयारण ही सही अवधयारणया बनने में मदद नहीं मिली है । अतः सही व्याख्या करने की आवश्कतया है । एक टिपपणी के जरिए मैं अपनी व्याख्या प्रस्तुत करूंरया , जिसे कृप्या आप सदया ध्यान में रखें । वह टिपपणी इस प्रकयार है : जयालत अपने आप में कुछ नहीं है , उसकया अलसततव तभी होतया है , जब वह सयारी जयालत्ों में सव्ं भी एक हिस्सा हो । दरअसल , जयालत कुद है ही नहीं , बल्क जयालतप्र्या है । मैं इसकया उदयाहरण देतया हूं , अपने लिए जयालत-संरचनया
vxLr 2021 दलित आंदोलन पत्रिका 29