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गांधी ने अपने जीवन की बाजी लगाकर भी हिनदू समाज के विघटन को रोकने की चेषटा की । उनहोंने सवर्ण हिनदुओं की अंतरातमा को जगाना चाहा , जिससे वे यह महसूस कर सकें कि उनहीं के धर्म को मानने वाले असंखय वयलकत किस प्रकार पशुओं जैसा जीवन वयतीत कर रहे हैं । हिनदू समाज तो बच गया , परनतु अछूतों का कुछ न बना । आज भी वे लोग दासों जैसी लसिवतयों में हैं और उनकी मुलकत की कोई आशा दिखाई नहीं देती ।’’ यह गांधी और कांग्ेस की दलित सनदभ्ष में एक सूक्म आलोचना थी । पर जगजीवन राम दलित राजनीति को कोई क्रालनतकारी दिशा नहीं दे सके । वे अंत तक यथालसिवत की ही राजनीति करते रहे ।
1950 में ‘ बामबे क्रानिकल ’ ने लिखा कि डा . अमबेडकर अपने संघर्ष में विफल हो गये थे । एक राजनेता के रूप में उनकी विफलता को कुछ अनय विद्ानों ने भी , जिनमें डी . आर . नागराज भी एक हैं , रेखांकित किया । मैं इस मत से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ , कयोंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डा . अमबेडकर दलित राजनीति के जनक हैं । वे इतिहास के एक पात् ही नहीं हैं , बल्क सियं इतिहास का निर्माण कर रहे थे । उनहोंने जो राजनीतिक संघर्ष किया , वह दलित उभार का एक जबरदसत सैलाब था , जिसमें कांग्ेस को नषट हो जाना था । इसलिये कांग्ेस ने उस संघर्ष को विफल करने में अपनी
सारी शलकत लगा दी थी । महतिपूर्ण यह नहीं है कि डा . अमबेडकर विफल हुए , महतिपूर्ण यह है कि उनहोंने दलित राजनीति को परिवर्तनकारी बनाया । उनके नेतृति में दलित राजनीति का ‘ रेडिकल ’ सिरूप हमेशा बना रहा ।
पूना-पैकट के बाद ही राजनीतिक पररलसिवत दलित राजनीति के अनुकूल नहीं रह गई थीं , इसे डा . अमबेडकर जानते थे । ये पररलसिवत आजादी के बाद भी न सिर्फ यथावत बनी रहीं , बल्क वे और भी जयादा प्रतिकूल हो गई थीं । लेकिन डा . अमबेडकर ने दलित राजनीति को जो दर्शन दिया , उसके साथ उनहोंने कोई समझौता नहीं किया । 1950 में उनहोंने दलित िगथों को संकीर्ण और संकुचित दृलषटकोण को तयागने को कहा और इस बात पर जोर दिया कि वे हर तरह से देश की सितनत्ता की रक्षा करें । उनहोंने अलगाव का विरोध किया तथा समान विचारधारा वाले दूसरे दलों से मिलकर संघर्ष करने की सलाह दी थी । 1951 में उनहोंने बमबई असेंबली के चुनावों में सोशलिसट पाटटी से शेडयू्ड कासट फेडरेशन का गठबंधन किया । उनहोंने कमयुवनसट पाटटी के साथ भी बातचीत की थी , पर वहां उनकी बात नहीं बनीं । उनहोंने सितनत्ता तथा समता के लिये जनतांवत्क समाजवाद की आवशयकता हेतु इन चुनावों में सोशलिसटों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी । 1950 में वे फेडरेशन का सोशलिसट पाटटी में
विलय करने के लिये भी तैयार हो गये थे , पर कुछ सैद्धांतिक कारणों से , जिसमें गांधीवाद के प्रति आग्ह-दुराग्ह भी एक कारण था , यह विलय नहीं हो सका था । चुनावों में गठबनधन विजयी नहीं हो सका और डा . अमबेडकर तथा अशोक मेहता भी पराजित हो गये थे । 1953 में फेडरेशन ने हैदराबाद में दलितों को जमीन दिलाने के लिये बहुत बड़ी लड़ाई लड़ी , जिसमें उनहें सफलता मिली । लेकिन चुनावों में फेडरेशन को सफलता नहीं मिल सकी । इसका कारण यह बताता है कि डा . अमबेडकर के चुनावी भाषण हिनदुओं के प्रति विद्ेरपूर्ण तथा अशिषटतापूर्ण होते थे , पर दलित दृलषटकोण इस आरोप को असिीकार करता है । उसके मतानुसार , मुखय कारण सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्ों का चक्रवयूह था , जिसे सिर्फ दलित वोटों से नहीं तोड़ा जा सकता था । कमयुवनसटों और सोशलिसटों का जनाधार भी आमतौर से हिनदुओं में ही था और वयािहारिक सच्ाई यह है कि उनकी कथनी और करनी में अनतर होता था ।
डा . अमबेडकर ने सियं इस चक्रवयूह को समझ लिया था , इसलिये उनहोंने 1955 में शेड्ू्ड कासट फेडरेशन के नेताओं से कहा था कि अब समय आ गया है कि वे दलितों के लिये सुरक्षित सीटों को समापत करने की मांग करें । वे चुनावों में अपने अनुभवों से इस नतीजे पर पहुंचे थे कि दलितों के लिये सुरक्षित सीटों का उद्ेशय निरर्थक हो गया है । इसी समय उनहोंने एक नई राजनीतिक पाटटी की जरूरत महसूस की थी , जो कुछ समय बाद उनहोंने ‘ रिपलबलकन पाटटी आफ इंडिया ’ नाम से गठित की ।
शेडयू्ड कासट फेडरेशन केवल दलितों के लिये दलितों की पाटटी थी । रिपलबलकन पाटटी के गठन के बाद फेडरेशन को सिर्फ सामाजिक संघर्ष के लिये सीमित कर दिया गया था । रिपलबलकन पाटटी का क्षेत् वयापक था । इससे दलित राजनीति का विकास समता और सितनत्ता के उद्ेशयों को पाने के लिये दलितों के अतिरिकत अनय िगथों और समुदायों तक भी करना था । पाटटी के द्ारा वयापक उद्ेशयों के लिये दलित राजनीति में नये आयाम जुड़ने थे ।
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