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स्वतंत्ता से पहले और बाद में दलित राजनीति -2
स्ािंत्ोत्र दलित राजनीति
अपने-अपने सरोकारों के बावजूद दलित राजनीति और जनवादी राजनीति यदि अपने लक्य को , जो दोनों का एक तरह से समान था , नहीं पा सकी , तो इसका मुखय कारण भी जाति और वर्ग की चेतना ही हैं , जिसे गांधी की हरिजन राजनीति के सामनती माडल ने नई ऊर्जा दी थी । वासति में , कांग्ेस जो सितनत्ता-संग्ाम लड़ रही थी , उसमें मुखय सहायक सामनत और पूंजीपति ही थे । वह लड़ाई मुखयरूप से उनहीं के हितों के लिये थी । समभितः भारतीय कमयूवनसट पाटटी ने 1928 में इसी आधार पर कांग्ेस से अपना समबनध विचछेद भी कर लिया था । लेकिन डा . अमबेडकर का
राजनीतिक आनदोलन सामनती माडल के लिये घातक था । जिस तरह डा . अमबेडकर कमयूनल अवार्ड में दलित िगथों को एक पृथक अ्पसंखयक वर्ग के रूप में मानयता दिलाने में कामयाब हो गये थे , वह गांधी के लिये इसीलिये जयादा चिंताजनक था कि उससे सर्वहारा या दलित वर्ग की सत्ा भारतीय समाज की मूल संरचना ( सामंतवादी ढाँचा ) धिसत कर सकती थी । इसलिये गांधी ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर उस समभािना को नषट किया । गांधी की हरिजन राजनीति ने हिनदू समाज में नव-उदारवाद पैदा किया , जिसने सियं को तो नहीं बदला , पर दलितों के प्रति उदार दृलषटकोण रखा ।
सितनत्ता प्रालपत के बाद दलित राजनीति में कोई क्रालनतकारी विकास नहीं हुआ । सितनत् भारत में कांग्ेस सत्ारूढ़ हुई और उसी ने दलितों का नेतृति किया । दलितों के लिये सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्ों में दलित उममीदवारों की विजय गैर-दलित मतों पर निर्भर करती थी , जिसमें मुसलमान भी शामिल थे । यह वोट कांग्ेस समर्थक जयादा था । इसलिये सुवनलशचत जीत के लिये दलितों का कांग्ेस से जुड़ना जरूरी हो गया । कांग्ेस ने इसका लाभ उठाया और उसने उन दलितों को अपना प्रतयाशी बनाया , जो अमबेडकर-विरोधी और गांधी समर्थक होते थे । यही कांग्ेस में दलितों के शामिल होने की योगयता थी , जिसमें उनका शिक्षित होना अनिवार्य नहीं था । कांग्ेस ने जगजीवन राम को डा . अमबेडकर के समानानतर राजनीति में उतारा था । वे अमबेडकर-विरोधी भी थे और गांधी समर्थक भी । वे कांग्ेस में दलित राजनीति मामलों के प्रभारी माने जाते थे । जगजीवन राम ने कई अवसरों पर डा . अमबेडकर की मुखर आलोचना ही नहीं की , वरन दलितों में उनके प्रभामंडल को समापत करने की कोशिशों में भी वे आगे रहते थे । लेकिन सत्र के दशक में जगजीवन राम के विचारों में परिवर्तन आया । उनहोंने डा . अमबेडकर की प्रासंगिकता को दलित राजनीति में अनुभव किया । गांधी के प्रति भी उनका दृलषटकोण बदला , जो उनकी 1981 में प्रकाशित पुसतक ‘ भारत में जातिवाद और हरिजन समसया ’ में उनके इस कथन में दिखाई देता है- ‘‘ महातमा
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