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समभितः इसी समय समाजवादी नेता डा . राम मनोहर लोहिया और डा . अमबेडकर के बीच महतिपूर्ण पत्ाचार 1956 के अंतिम महीनों में हुआ था । डा . लोहिया के दो सहयोगी विमल मेहरोत्ा और धर्मवीर गोसिामी भी डा . अमबेडकर से मिले थे । वे चाहते थे कि दलित फेडरेशन का विलय सोशलिसट पाटटी में हो जाये और डा . अमबेडकर समसत भारत को अपना नेतृति दें । लेकिन यह सपना पूरा नहीं हो सका , कयोंकि लोहिया गांधीवाद छोडना नहीं चाहते थे . कुछ ही दिन बाद दिसमबर में ही डा . अमबेडकर का भी छह तारीख को निधन हो गया ।
यदि डा . अमबेडकर जीवित रहते तो कया दलित राजनीति का सोशलिसट पाटटी में विलय हो सकता था ? यह एक विचार है और इसकी क्पना इसलिये जरूरी हो जाती है कि लोहिया-समर्थक कुछ समाजवादी विचारक इस घटना को एक विडमबना के रूप में या उस ‘ विचार ’ के रूप में देखते हैं , जो पैदा होने से पहले ही मर गया था । मुझे ऐसे लगता है कि सोशलिसट पाटटी में दलित फेडरेशन का विलय होना सिर्फ एक विचार था , जो शायद ही मूर्त होता । कारण बहुत सपषट है , जो लोग डा . लोहिया और डा . अमबेडकर की राजनीतिक विचारधारा से थोड़ा-बहुत भी परिचित हैं , उनहें मालूम होगा कि डा . अमबेडकर ने दलित राजनीति की बुनियाद गांधीवाद के विरोध पर रखी थी । लेकिन लोहिया काफी हद तक गांधीवादी थे । विचारधारा का यह टकराव इस विलय में जरूर बाधक बनता । दूसरा कारण यह था कि वर्णवयिसिा और जाति-प्रथा के जितने कटु और मुखर आलोचक डा . अमबेडकर थे , उतने डा . लोहिया नहीं थे । जाति-प्रथा के संदर्भ में समाजवादियों की जो आलोचना डा . अमबेडकर ने 1936 में की थी , उसका आधार समाजवादियों में 1956 में भी मौजूद था । ऐसी लसिवत में दलित राजनीति का समाजवाद में विलय दलित वर्ग के लिये आतमघाती ही होता ।
साठ के दशक की दलित राजनीति दलित राजनीति के लिये 1960 का दशक
अतयनत महतिपूर्ण है । इस दशक में तीन क्रालनतकारी घटना हुईं । पहली , भारतीय रिपलबलकन पाटटी ने महाराषट् , वद्ली और उत्र भारत में दलितों , पिछड़ों और अ्पसंखयक समुदायों में अपना क्रालनतकारी जनाधर बनाया , और एक वैकल्पक दलित राजनीति का उदय हुआ । 1960 में ही इसने महाराषट् में एक विशाल भूमि सतयाग्ह किया , जिसके कारण महाराषट् सरकार को कई लाख एकड़ भूमि देने का निर्णय लेना पड़ा । महाराषट् में सफलता के बाद 1964 में पूरे देश में और खासतौर से उत्र प्रदेश में रिपलबलकन पाटटी ने भूमि सतयाग्ह किया , जो दो महीने तक चला । केनद्र सरकार ने सभी राजय सरकारों को यह आदेश दिया कि वे राजय की बेकार पड़ी भूमि भूमिहीन किसानों को दें । रिपलबलकन पाटटी ने ही अपने आनदोलनों में भूमि के राषट्ीयकरण की मांग उठाई थी । 1962 के आम चुनावों में उत्र प्रदेश से विधानसभा में गयारह तथा लोकसभा में चार रिपलबलकन पाटटी के सदसय चुने गये थे ।
रिपलबलकन पाटटी ने दलित िगथों की आर्थिक समसयाओं को उठाकर दलित राजनीति को नई दिशा दी थी । दुर्भागय से यहां पर वामपंथी दलों ने इस आनदोलन को अपना समर्थन नहीं दिया , जबकि उसकी जरूरत थी । इसका परिणाम यह
हुआ कि सामनती ताकतों वाली कांग्ेस रिपलबलकन पाटटी की राजनीति को कमजोर करने में सक्रिय हो गई । पाटटी के बड़े दलित नेता कांग्ेस के सत्ा-लोभ के जाल में फंस गये और फिर धीरे-धीरे उसके कई टुकड़े हो गये ; अनततः वह कांग्ेस के लिये काम करने वाली एक पाटटी बनकर वनषप्राण हो गई ।
इस दशक की दूसरी क्रालनतकारी घटना यह है कि नकसलवाद के रूप में रेडिकल वामपंथ का उदय हुआ , जिसने सामनतों और भूसिावमयों की नींद हराम कर दी । यह आनदोलन सीधे-सीधे तो दलितों से नहीं जुड़ा था , पर भूमिहीन दलितों के संघर्ष को इसने नई ताकत दी । इस आनदोलन ने धीरे-धीरे बंगाल से बिहार और दूसरे राजयों में भी अपना वयापक प्रसार किया । उच् जातीय हिंदू और वयिसिािादी विचारकों ने इस आनदोलन को आतंकवाद का नाम दिया , जबकि वासति में इसका उदय सामनती आतंकवाद के प्रतिरोध में हुआ था । अतः सामनती सत्ाओं ने इस आनदोलन को हर समभि तरीके से कुचला , पुलिस बल से भी और निजी सेनाओं के द्ारा भी ।
तीसरी क्रालनतकारी घटना 1969 में यह हुई कि कांग्ेस में इंदिरा गाँधी के खिलाफ जबरदसत बगावत हुई । वह इंडिकेट और सिंडिकेट में विभाजित हो गई । मधयिगटीय और सामनती विचार वाले लोगों ने अपनी अलग कांग्ेस बना ली और इंदिरा गांधी ने दलित नेता जगजीवन राम को अधयक्ष बनाकर असली कांग्ेस का गठन किया । दलित राजनीति के लिये यह घटना महतिपूर्ण थी । दलितों पर इस घटना का बहुत प्रभाव पड़ा । यही वह समय था , जब दलित कांग्ेस से जुड़े । जगजीवन राम की वजह से दलितों ने कांग्ेस को अपनी पाटटी की तरह महति दिया और जगजीवन राम ने दलितों को कांग्ेस का वोट बैंक बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई । निषकर्ष यह कि साठ के दशक में दलित राजनीति ने जहां रिपलबलकन पाटटी के नेतृति में अपना पृथक और क्रालनतकारी अलसतति बनाया , वहीं वह कांग्ेस की पिछलगगू भी बनी और उसका पतन भी हुआ ।
( समापि )
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