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समझौता हुआ , सविनय-अवज्ा आनदोलन सिवगत कर दिया और गांधी जी ने दूसरे गोलमेज सममलेन में जाना सिीकार किया । 7 सितमबर 1931 को दूसरा गोलमेज सममेलन प्रारंभ हुआ । डॉ . आंबेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की , लेकिन गांधी जी दलितों के पृथक निर्वाचन के लिए सहमत नहीं थे , जबकि सिकखों , मुलसलमों , ईसाईयों के पृथक निर्वाचन के लिए तैयार थे । उनका इसमें तर्क था कि इससे हिनदू समाज बिखर जाएगा ।
20 अगसत 1932 को वब्वटश प्रधानमंत्ी के द्ारा ‘ सांप्रदायिक निर्णय ’ घोषणा हुई , जिसमें दलितों को पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला और साथ में आम-निर्वाचन में भी मत देने एवं उममीदवार होने का अधिकार दिया गया । गांधी जी ने दलितों के पृथक निर्वाचन के विरोध में यरवदा सेनट्ल जेल में वब्वटश प्रधानमंत्ी को सूचित कर आमरण उपवास 20 सितंबर 1932 से प्रारंभ कर दिया । डॉ . आंबेडकर पर लोगों द्ारा चारों तरफ से दबाब बनने लगा , साथ ही उनहें गांधी जी के प्राणों की चिंता थी । नेताओं के सहयोग से गांधी और अमबेडकर में दलितों की सुरक्षित सीटों ( आरक्षण ) को लेकर समझौता हुआ । पूना-पैकट के अनुसार दलितों को ‘ सांप्रदायिक निर्णय ’ से दुगनी सीटें मिली और यहीं से आरक्षण की नींव पड़ गई । लेकिन दलितों को इसका एक बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा , और वह यह कि उनहें पृथक निर्वाचन से हांथ धोना पड़ा , जिसका खामिया्ा वे आज भी भुगत रहें हैं । दलितों के नेता चुनकर तो जाते हैं , लेकिन दलितों के सच्े हितैषी नहीं होते । पृथक निर्वाचन न मिलने के कारण डॉ . आंबेडकर को भी चुनाव में हारना पड़ा था ।
हिनदू धर्म में दलितों और पिछड़ों के प्रति हिंसक वयिहारों तथा शोषण एवं दमनकारी नीतियों से तंग आकर डॉ . आंबेडकर को 1935 में कहना पड़ा , “ मैं हिनदू धर्म में पैदा अवशय हुआ हूं लेकिन इस धर्म में रहते हुए मरूंगा नहीं ।” धर्म परिवर्तन की घोषणा सुनकर इसलाम , सिकख , ईसाई तथा जैन धर्म के धर्म गुरुओं ने बाबा साहब को अपने-अपने धर्म ग्हण करने
20 अगस्त 1932 को वरिटिश प्रधानमंत्री के द्ारा ‘ सांप्रदायिक निर्णय ’ घोषणा हुई , जिसमें दलितों को पृथक वनववाचन का अधिकार मिला और साथ में आम-वनववाचन में भी मत देने एवं उम्ीदवार होने का अधिकार दिया गया । गांधी जी ने दलितों के पृथक वनववाचन के विरोध में यरवदा सेन्ट्रल जेल में वरिटिश प्रधानमंत्री को सूचित कर आमरण उपवास 20 सितंबर 1932 से प्रारंभ कर दिया ।
का आग्ह किया । लेकिन वे किसी के भी प्रलोभन में नहीं आए । उनका तर्क था कि धर्मानतरण किसी आर्थिक लाभ के लिए नहीं , बल्क विशुद्ध आधयालतमक प्रालपत के लिए होता है । बहुत ही सोच विचार कर , पहले वह सिकख धर्म की ओर झुके , लेकिन अंत में उनहोंने बुद्ध के मार्ग पर चलना उचित समझा ।
जीवन के अंतिम दिनों में अपने अनुयाइयों को बौद्ध धर्म की शिक्षा समझाने के लिए एक वृहत ग्नि ‘ बुद्धा एंड हिज धममा ’ की रचना की , जो भारतीय बौद्धों में विशेष रूप से लोकप्रिय है । डॉ . आंबेडकर ने आजीवन अछूतों के अधिकार की लड़ाई लड़ी । वे हमेशा अपने निजी
जीवन की परेशानियों को भूलकर दलितों , पिछड़ों , महिलाओं और वंचित समुदायों को सामाजिक नयाय दिलाने के लिए प्रयासरत रहें । आज उनहें विशि के सबसे बड़े संविधान के निर्माता और ‘ सिमबल ऑफ नॉलेज ’ के नाम से जाना जाता है । कहते हैं , 21वीं सदी डॉ . आंबेडकर की है । उनके लोकतालनत्क विचारों का असर समाज में , दिन प्रतिदिन बढता ही जा रहा है । डॉ . आंबेडकर का भारतीय समाज में वंचितों के सममान की लड़ाई शुरू करने के उनके अभूतपूर्ण योगदान के लिए , वे दलितों और पिछड़ों के लिए एक सूर्य समान हैं , जिनसे वे रोशनी , जीवन और उर्जा प्रापत करते हैं । �
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