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में सामाजिक नयाय की आस में लोग इकट्ठा हुए और तालाब के पानी को पी लिया । जिस पानी को कुत्े वब्ली पी सकते थे , जानवर उसमें नहा सकते थे , उस पानी को दलित छू भी नहीं सकते थे । मानवीय गरिमा का इतना पतन ! इस कारण बाबा साहब बड़े चिंतित और दुखी हुए । उनके दुखित मन के तूफान ने उनहें 26 जून 1927 को ‘ बहिषकृत भारत ’ में यह घोषणा करने को मजबूर किया , “ अछूत समाज हिनदू धर्म के अंतर्गत है या नहीं ? इसका हमेशा के लिए फैसला होना चाहिए ।”
दरअसल , अछूत समाज सिर्फ कहने के लिए हिनदू था । उसे समाज में देवी-देवताओं के मंदिर में जाने तक की अनुमति नहीं थी । इसका असर हम आज आ्ादी मिलने के 70 साल बाद भी देखते हैं जो कभी अखबारों में सुर्खियां बन जाती है और कभी-कभी गांव-समाज में ही दबकर रह जाती है । ऐसे समय में डॉ . आंबेडकर के नेतृति
में नासिक के ‘ कालाराम मंदिर ’ दर्शन के लिए दलितों ने आनदोलन प्रारंभ किया । ह्ारों की संखया में दलित मंदिर परिसर के पास पहुंचे और वहां के कर्मचारियों ने मंदिर के दरवा्े बंद कर लिए । एक माह तक दरवा्े बंद रहे , लेकिन रामनवमी के दिन हर साल की तरह मूर्ति को रथ में बिठाकर जुलूस निकालना था । इसलिए मवजसट्ेट के सामने समझौता हुआ कि दलित और सवर्ण दोनों मिलकर जुलूस निकालेगें , कई दिनों के पशचात् कालाराम मंदिर कानून बना और दरवा्े दलितों के लिए खोल दिए गए ।
गांधी के नेतृति में सविनय अवज्ा आंदोलन चल रहा था । कांग्ेस के नेता जेल में थे । वब्वटश सरकार और कांग्ेस के बीच समझौता हुए बिना ही अनय नेताओं और रियासतों के सहयोग से लनदन में गोलमेज सममेलन का आयोजन वब्वटश प्रधानमंत्ी रमजे मॉकडोना्ड की अधयक्षता में 12 नवंबर 1930 को प्रारंभ हुआ । वायसराय
के निमंत्ण पर डॉ . आंबेडकर दलित नेता की हैसियत से गोलमेज परिषद में शामिल हुए । सभी नेताओं ने अपने-अपने पक्ष रखे , उनमें से डॉ . आंबेडकर ने बड़ा ही धयान आकर्षित करने वाला भाषण प्रसतुत किया । उनहोंने कहा , “ मैं जिन अछूतों के प्रतिनिधि की हैसियत से यहां उपलसित हूं , उनकी लसिवत गुलामों और पशुओं से भी बदत्र है । पशुओं को तो , उनके मालिक छूते हैं , पर हमें तो छूना भी पाप समझा जाता है । हमारी लसित जो पहले थी , वैसी ही वब्वटश राज में है । हमें हमारे हाथों में राजनीतिक सत्ा चाहिए कि हम अपना दुःख सियं दूर करें ।”
डॉ . आंबेडकर के भाषण से सभी प्रभावित हुए । उनहोंने दलितों के लिए पृथक चुनाव , पृथक निर्वाचन संघ एवं सुरक्षित सीटों तथा नौकरियों में प्रवेश की मांग की । इस सममेलन में हिनदू- मुलसलम समझौता न बन सका और सममेलन समापत हो गया । 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन
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