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के नेताओं के बनाए संविधान या सुधारों को मानयता नहीं देंगे । यहां मुलसलम लीग भी बंटा हुआ था । मुहममद शफी के नेतृति वाले लीग ने साइमन कमीशन के समर्थन की घोषणा कर रखी थी । उका मत अलग था । लेकिन कांग्ेस ने बर्कनहेड की चुनौती सिीकार कर ली । फरवरी 1928 में वद्ली में एक सर्वदलीय बैठक हुई । फिर मई 1928 में बांबे ( अब मुंबई ) में एक और सर्वदलीय बैठक हुई । इसके बाद मोतीलाल नेहरू की अधयक्षता में एक समिति बनाई गई , जिसको संविधान में सुधार के लिए सुझाव देने का काम शीघ्रता के साथ करवाने का दायिति दिया गया । इस संविधान में सांप्रदायिकता की समसया से निबटने के तरीकों की अपेक्षा की गई थी । इसमें मोतीलाल नेहरू के साथ सर अली इमाम , शोएब कुरैशी , एम एस अणे , एम आर जयकर , जी आर प्रधान , सरदार मंगल सिंह , तेज बहादुर सप्रू और एन एम जोशी जैसे नेता शामिल किए गए थे । नेहरू समिति ने संविधान की एक रूपरेखा प्रसतुत की , जिसमें
इंगलैंड की सरकार की तरह की अधिकार संपन्न केंद्र सरकार की प्रसतिाना की गई । यहां तक तो बात ठीक थी , लेकिन नेहरू समिति की संविधान को लेकर जो रिपोर्ट थी उसने सांप्रदायिकता को भी मानयता प्रदान करने का काम किया । इस समिति ने माना कि सिंध को एक अलग मुलसलम बहुक प्रांत बनाया जाना चाहिए । उस दौर के मुसलमान काफी समय से ये मांग कर रहे थे । इतना ही नहीं मोतीलाल नेहरू की अधयक्षता वाली समिति ने पलशचमोत्र सीमा प्रांत को भी कई तरह के संवैधानिक अधिकार देने की सिफारिश की । मुसलमानों की धार्मिक और सांसकृवतक हितों की रक्षा के लिए संविधान में अधिकारों की घोषणा का प्रविधान प्रसतावित किया गया था । इस तरह की सिफारिशों से उस वकत के मुसलमान नेताओं के महातिाकांक्षओं को पंख लगे । जिन्ना इसमें तीन संशोधन चाहते थे , पहला विधानसभा में एक तिहाई सीट मुलमानों को मिले , पंजाब और बंगाल में जनसंखया के आधार पर प्रतिनिधिति
और प्रातों को अधिक शलकतयां । जिन्ना के इन मांगों को कांग्ेस ने खारिज कर दिया । उधर मुहममद शफी ने वद्ली में 31 दिसंबर 1928 को आल पाटटीज मुलसलम कांफ्ेंस की बैठक बुलाकर नेहरू समिति की सभी सिफारिशों के विरोध में प्रसताि पारित करवा दिया ।
खिलाफत आंदोलन की विफलता के बाद सांप्रदायिकता को राजनीति का औजार बनाने वाले मुलसलम नेता सिाधीनता संग्ाम में हाशिए पर चले गए थे । मोतीलाल नेहरू की अधयक्षता में बनी समिति संवैधानिक सुधार के सुझावों के बाद उस समय के मुलसलम नेताओं की महातिाकांक्षाएं काफी बढ गईं । उनको लगा कि जब सिंध को मुलसलम बहुल प्रांत बनाने की मांग सिीकार की जा सकती है , जब मुसलमानों की धार्मिक हितों की रक्षा के लिए संविधान में अधिकारों की घोषणा का प्रसताि किया जा सकता है तो इसके आगे की मांगे भी मानी जा सकती हैं । इस कारण उनहोंने अपना रुख और कठोर कर लिया था । परिणाम ये हुआ कि 1932 में कमयूनल अवार्ड की घोषणा वब्वटश सरकार ने कर दी । इन पररलसियों की परिणति अलग मुलसलम राषट् की मांग के तौर पर हुई । राषट् का विभाजन हुआ । अभूतपूर्व घटनाएं हुईं । विसिापन और पलायन की बेहद दर्दनाक और दुर्भागयपूर्ण घटनाएं हुईं । लाखों लोगों का बसा-बसाया संसार उजड़ गया । इस बात की सूक्षमता से पड़ताल की जानी चाहिए कि वो कौन की लसिवतयां या मजबूरियां थीं जिसके चलते नेहरू समिति ने मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों के लिए संविधान में घोषणा की बात की थी । वो कौन सी लसिवतयां थीं जिसके चलते सिंध को मुलसलम प्रांत के तौर पर मानयता की मांग मान ली गई थी ।
विचार तो इसपर भी होना चाहिए कि अगर नेहरू समिति ने संविधान सुधार के लिए ये सिफारिशें नहीं की होतीं तो उस समय के मुसलमान नेता धर्म या जनसंखया के आधार पर प्रांत या राषट् की मांग नहीं करते । तब विभाजन के अलावा किसी अनय विक्प पर भी बात होती ?
( साभार )
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