आया कि बिना सत्ी शिक्षा के कोई भी प्रगति अधूरी है । विदेश में होते हुए वहां की लसत्यों को सितनत्तापूर्वक जीवन जीते हुए , चिंतन-मनन करते हुए , उनकी प्रगति देख उनकी सत्ी चेतना को धार मिली । 1913 में नयूयार्क में पढ़ते हुए , डॉ . आंबेडकर ने अपने पिता के वमत् को जवाब देते हुए पत् में लिखा ‘ यह गलत है कि मां-बाप बच्ों को जनम देते है कर्म नही देते । मां-बाप बच्ों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते है , यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम
लोग अपने लड़कों की शिक्षा के साथ ही लड़कियों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी । इसलिए आपको नजदीक रिशतेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए ।’ ( धनंजय कीर की पुसतक
डॉ . अमबेडकर-लाईफ एण्ड मिशन से उद्धृत )
डॉ . आंबेडकर एकमात् ऐसे विशिसतरीय चिंतक है जिनहोने परिवार और समाज में सत्ी की लसिवत कैसी हो , इस पर गहन चिंतन-मनन किया । पुरूषों के साथ सत्ी को भी समानता व सितनत्ता मिले , उसे समाजिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी भी प्रापत हो , परिवार में उसका दर्जा पुरूष के समान हो , इसके लिए उनहोंने दलित गैर दलित लसत्यों को समाज परिवर्तन के आनदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ने का आह्ान किया । दोनों जगत यानि घर और समाज में नारी की हीनतर लसिवत को देखकर उनहोंने इस विषय पर खूब सोचा कि भारतीय सत्ी की लसिवत में क्रांतिकारी परिवर्तन कैसे आए । यह क्रांतिकारी परिवर्तन परिवार तथा समाज में नारी को
विशेषाधिकार देकर ही किया जा सकता था । डॉ . आंबेडकर का मानना था कि सत्ी तथा समाज की उन्नति , शिक्षा के बिना नही हो सकती । सुनदर और सुशिक्षित व सभय परिवार के लिए आवशयक है कि पुरूषों के साथ-साथ घर की लसत्यां भी पढ़ी लिखी हो ताकि वे समाज परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल हो सके । समाज के परिवर्तन द्ारा ही लसत्यों की मुलकत समभि है । डॉ . आंबेडकर का मानना था कि परिवार में सत्ी शिक्षा ही वासतविक प्रगति की धुरी है । जिस घर में पढ़ी लिखी सत्ी व मां हो उस घर के बच्ों का भविषय अपने आप उज्जवल हो जाता है । सत्ी शिक्षा को डॉ . आंबेडकर महति देते हुए कहते है कि अगर घर में एक पुरूष पढ़ता है तो केवल वही पढ़ता है और यदि घर में सत्ी
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