भी उनहोंने मुझे बाहर ही रखा । मेरे विरोध दर्ज करने के बाद मेरा नाम जोड़ा गया ।
एक और चीज जिसने डॉ . आंबेडकर को इसतीफे के लिए बाधय किया , वो था हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव । यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन
बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया । उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार होता । बाबा साहब ने कहा था कि प्रधानमंत्ी के आशिासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया । अपने भाषण के अंत में उनहोंने कहा , “ अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्ी के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए , तो वनलशचत ही गलती मेरी नहीं है ।”
डॉ . आंबेडकर का नेहरू सरकार के प्रति असंतुषट होने का एक और मुखय कारण था , पिछड़े िगथों और अनुसूचित जातियों से जुड़ा भेदभावपूर्ण वयिहार । डॉ . आंबेडकर अपने भाषण
में आगे कहते हैं कि मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि संविधान में इन जातियों की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष तय नहीं किया गया । यह तो राषट्पति द्ारा नियुकत एक आयोग की संसतुवत के आधार पर सरकार को करना पड़ा । इसका संविधान पारित करते हुए हमें एक वर्ष हो गया था लेकिन सरकार ने आयोग के गठन तक के विषय में नहीं सोचा । आज अनुसूचित जाति की लसिवत कया है ? जहां तक मैंने देखा है , वैसी ही है जैसी पहले थी । वही चला आ रहा उतपीड़न , वही पुराने अतयाचार , वही पुराना भेदभाव जो पहले दिखाई पड़ता था । सब कुछ वही , बल्क और बदतर हालात वाली लसिवत । बल्क यदि तुलना करें तो इनसे जयादा सरकार मुसलमानों के प्रति संवेदना दिखा रही है । प्रधानमंत्ी का सारा समय और धयान मुसलमानों के संरक्षण के लिए समर्पित है । कया अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और भारतीय ईसाइयों को सुरक्षा की जरूरत नहीं है । नेहरू जी ने इन समुदायों के लिए कया चिंता दिखाई है ? जहां तक मुझे मालूम पड़ता है कुछ भी नहीं । जबकि असली बात यह है कि ये वो समुदाय हैं , जिन पर मुसलमानों से भी जयादा धयान देने की जरूरत है ।”
बाबा साहब अपने भाषण में नेहरू की मुलसलम तुलषटकरण वाली नीतियों की बखिया उखेड़ रहे थे । डॉ . आंबेडकर की चिंता शोषितों , वंचितों और समाज के सबसे नीचे पायदान पर खड़े लोगों के लिए थी लेकिन इसके उलट नेहरू की नीतियां मुलसलम तुलषटकरण को बढािा दे रही थीं । ऐसे कई मौके आए जब नेहरू ने डॉ . बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीति सफर पर न केवल अड़चने पैदा कीं बल्क कई बार उनहें चुनाव हराने में भी बड़ा रोल निभाया , जिसमें वो कामयाब भी हुए ।
डॉ . बाबासाहेब आंबेडकर ने 14 सितंबर 1956 को ततकालीन प्रधानमंत्ी जवाहरलाल नेहरू को एक पत् लिखा , जिसमें उनहोंने अपनी पुसतक ‘ बुद्ध और उनके धमम ’ के प्रकाशन के लिए मदद मांगी । इस पर नेहरू ने डॉ . आंबेडकर के पत् का जवाब दिया और ‘ बुद्ध और उनके धमम ’ पुसतक की 500 प्रतियां खरीदने में असमर्थता वयकत की । जब 296 लोगों को
शुरुआती संविधान सभा में भेजा गया था तो उसमें डॉ . आंबेडकर का नाम शामिल नहीं था , उस समय के बॉमबे के मुखयमंत्ी बीजी खेर ने ये सुवनलशचत किया था कि डॉ . आंबेडकर 296 सदसयीय निकाय के लिए नहीं चुने जाएंगे ।
ऐसी कई घटनाएँ हैं , जो साबित करती हैं कि कांग्ेस और उसके नेता खासकर नेहरू कभी डॉ . आंबेडकर को मुखय धारा की राजनीति में नहीं आने देना चाहते थे । इन तमाम झंझावतों को दूर कर बाबा साहब ने उस दौर में वो मुकाम हासिल किया , जो किसी दलित नेता के लिए बहुत मुलशकल था । डॉ . आंबेडकर का लक्य था- ‘ सामाजिक असमानता दूर करके शोषित , वंचितों के मानवाधिकार की प्रतिषठा करना ’। डॉ . आंबेडकर ने गहन-गंभीर आवाज में सावधान किया था कि 26 जनवरी 1950 को हम परसपर विरोधी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं । हमारे राजनीतिक क्षेत् में समानता रहेगी किंतु सामाजिक और आर्थिक क्षेत् में असमानता रहेगी । ज्द से ज्द हमें इस परसपर विरोध को दूर करना होगा । नहीं तो जो असमानता के शिकार होंगे , वे इस राजनीतिक गणतंत् के ढाँचे के लिए मुलशकलें पैदा करेंगे ।
इसलाम पर डॉ . भीमराव अंबेडकर के विचार कया थे ? काफी चर्चित पुसतक ‘ डॉ . बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंगस एंड सपीचेज , वॉ्यूम 8 ’ के पृषठ 64-65 से हम इसे समझ सकते हैं । यहां जिस भाषण का जिक्र है , उसमें बाबा साहब कहते हैं- इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में मुलसलम आक्रांता हिंदुओं के खिलाफ घृणा का राग गाते हुए आए थे । उनहोंने न केवल घृणा ही फैलाई बल्क वापस जाते हुए हिंदू मंदिर भी जलाए । उनकी नजर में यह एक नेक काम था और उनके लिए तो इसका परिणाम भी नकारातमक नहीं था । उनहोंने एक सकारातमक कार्य किया , जिसे उनहोंने इसलाम के बीज बोने का नाम दिया । इस पौधे का विकास बखूबी हुआ , यह केवल रोपा गया पौधा नहीं था बल्क यह एक बड़ा विशाल पेड़ बन गया था । डॉ . आंबेडकर ने मुलसलम आक्रांताओं द्ारा तोड़े गए मंदिरों पर कई बार खुलकर अपने विचार रखे हैं । �
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