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40 साल पहले कांशीराम , 90 साल पहले डॉ . आंबेडकर ने बीमारी की पुलषट की थी और दलित अभी भी छद्म प्रतिनिधिति के बोझ तले दबे हैं । उनके लिए इससे उबरने का समय आ गया है । इस अचूक इलाज के लिए कुछ भी अलग से करने की आवशयकता नहीं है , बल्क बाबासाहब की वापसी की आवशयकता है । पूना पैकट के पहले और बाद में जो डॉ . आंबेडकर ने किया शायद यही एक मात् कार्य हैं कि पुरानी गलतियों को दुरुसत करना होगा । संयुकत निर्वाचक मंडलों के माधयम से राजनीतिक आरक्षण की वयिसिा को अंग-विचछेद करना है और अलग निर्वाचन
वासतविक विचारधारा के बजाय अमबेडकरवाद की वयाखया अपने अनुसार करके समाज को चमचा युग -कठपुतली के दौर से लोटा युग- निरावश्त बहूजनों के दौर में धकेल देते हैं । विजय मानकर कहते हैं कि चमचा युग की शुरुआत24 सितंबर , 1932 को हुई थी , जबकि लोटा युग की शुरुआत 6 दिसंबर , 1956 पशचात इन बुद्धिमान चममचों द्ारा की गई थी ।
यदि पागलपन एक ही काम को बार-बार कर रहा है और विभिन्न परिणामों की उममीद कर रहा है , तो दलितों के लिए यह एक जंगली हंस है यदि वे वर्तमान चुनावी प्रणाली के माधयम
रहे हैं , जिसने शिक्षा और सरकारी क्षेत्ों में आरक्षण को धीरे-धीरे खतम कर दिया है । जहां तक अंग्ेजों का सवाल है , पहले दो गोलमेज सममेलनों में डॉ . अमबेडकर ने न केवल एक प्रभावशाली प्रसतुवत दी बल्क उनके वयलकतगत अनुनय के कारण कमयुनल अवार्ड की घोषणा की गई । कया दलित अपने दुख को खतम करने के लिए एक और आंबेडकर के जनम की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? यदि वासति में बाबासाहब अपने लेखन और भाषणों में जीवित हैं , तो दलितों को उनका अनुकरण करना चाहिए और सितंत् निर्वाचक मंडल के लिए दबाव बनाना चाहिए
पद्धति द्ारा दलितों का प्रतिनिधिति से बदलाव ही समय की आवशयकता है ।
चमचा युग में कांशीराम द्ारा दी गई चिकितसा आज भी प्रासंगिक है । यह अ्पकालिक सामाजिक कार्रवाई और दीर्घकालिक राजनीतिक संतुलषट की दो-आयामी रणनीति के माधयम से चातुकरिता के दौर के अंत की क्पना करता है । जहां तक सामाजिक बदलाव की बात है , दलितों को अज्ानी चममचों के साथ-साथ प्रबुद्ध / आंबेडकरवादी चममचों ने समान रूप से नीचा दिखाया है । पहले के लोगों ने बाबासाहब के जीवन , संघर्ष , मिशन और संदेश पर धयान नहीं दिया और इसलिए जिनहोंने अपने अधिकारों को हड़प लिया , वे उनके रक्षक हैं । बाद वाले ( अंबेडकरी-चमचे ) समाज के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रहे हैं । ये
से राजनीतिक सत्ा का सिाद लेने की उममीद करते हैं । संयुकत निर्वाचक मंडल वाली सीटों के लिए राजनितिक आरक्षण हटा दिया जाना चाहिए और इसके बजाय दलितों के लिए एक अलग निर्वाचक मंडल की सिापना की जानी चाहिए । चममचों का युग समापत करने और वासतविक प्रतिनिधियों का चुनाव करने का यही एकमात् दीर्घकालिक राजनीतिक समाधान है ।
लोकसभा में 131 आरक्षित सीटें सांसदों का एक समूह है , जैसाकि राजा शेखर वुंड्रू ने उनहें ‘ गूंगा मवेशी ’ कहा है और अपने-अपने राजनीतिक दलों की सेवा करते हैं । उनसे सितंत् मतदाताओं के लिए कानून बनाने की उममीद नहीं की जाती है । विडंबना यह है कि वे दशकों बाद खुशी-खुशी अपने आरक्षण का विसतार कर
जैसा कि उनहोंने जीवन भर किया । इतिहास कभी इतिहास जैसा नहीं दिखता जब हम उसे आतमसात करके जी रहे होते है । पूना पैकट एक मामूली समझौता था और यह सिर्फ दलितों के लिए इतिहास नहीं है कयोंकि वे अभी भी इसके परिणाम भुगत रहे हैं ।
पूना पैकट के शताबदी वर्ष बीत जाने के बावजूद दलित संघर्ष आंदोलन का दायिति है कि उस मनहूस दिन में किए गए गलत कामों को दूर किया जाए । अमबेडकरी बुद्धिजीवियों को आरक्षित सीटों के लिए विशिषट प्रतिशत वोटों के साथ बाबासाहेब के पृथक निर्वाचक मंडल या संयुकत निर्वाचन प्रणाली विचार को लागू करके सही दलित प्रतिनिधिति सुवनलशचत करने के लिए एक रोड मैप बनाना होगा । �
22 vxLr 2023