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नषट हो गया है । यह सब गांधी द्ारा कमयुनल अवार्ड की विशिासघाती हतया के साथ शुरू हुआ और गांधी के वब्कुल विपरीत विचारधारा होने के बावजूद , वर्तमान फांसीवादी शासन द्ारा उसी उतसाह के साथ किया जा रहा है । कया यह सपषट रूप से दलितों को उनके वासतविक राजनीतिक प्रतिनिधिति से वंचित करने के एक
सामानय सिद्धांत पर काम करने वाली ताकतों का मकसद या मतलब नहीं है ? राजा शेखर वुंड्रू ने अपनी पुसतक “ द मेकिंग ऑफ इंडियाज़ इलेकटोरल रिफॉमस्ष ” में निषकर्ष निकाला है कि दलितों पर इसतेमाल की जाने वाली विभिन्न चुनावी प्रणालियाँ जैसे प्राथमिक और माधयवमक
चुनावों की पूना समझौते पर आधारित पैनल प्रणाली , दोहरे सदसय निर्वाचन क्षेत् और वर्तमान एकल सदसय निर्वाचन क्षेत् , अछूतों की समसयाओं का निराकरण और सामाजिक समानता हासिल करने हेतु विफल रहे हैं । यदि दलितों के पास वासतविक राजनीतिक प्रतिनिधिति होता , तो एससी आरक्षित सीटों पर चुने गए
लोकसभा में बैठे 84 सांसद हमारे समाज और पूरे देश के लिए चमतकार करते ।
पंजाब विधानसभा चुनावों को धयान में रखते हुए , जहां हर तीसरा मतदाता दलित है , रेहनमोल रवींद्रन ने एक अधययन प्रकाशित किया । अधययन से पता चलता है कि 34 आरक्षित
निर्वाचन क्षेत्ों में से कई में 45 प्रतिशत से अधिक दलित वोट हैं- बंगा ( 49.71 प्रतिशत ); करतारपुर ( 48.82 प्रतिशत ); वफ्लौर ( 46.85 प्रतिशत )। सामानय सीटों में भी , 83 में से 64 सीटों में दलित मतदाताओं की संखया अधिक है , जिनमें नकोदर ( 43.89 प्रतिशत ), नवांशहर ( 40.66 प्रतिशत ) और लंबी ( 40.50 प्रतिशत ) जैसे 40 प्रतिशत से अधिक हैं । पंजाब में दलित मतदाताओं का प्रतिशत इतना अधिक है कि 117 में से 98 सीटों का फैसला उनके वोटों से होता है .
पिछली कांग्ेस सरकार के खिलाफ दलित मतदाताओं की नकारातमक वोट की लहर पर सवार होकर , आआपा ने 2022 के चुनावों में 34 आरक्षित सीटों में से 29 सीटें हासिल कीं । आरक्षित सीटें जीतने वाले ये 29 आआपा विधायक अपनी पाटटी का प्रतिनिधिति करते हैं या नहीं , यह बहस का विषय है । हैरानी की बात यह है कि उनके पास अपने समाज को छोड़कर पाटटी से चिपके रहने के अलावा कोई विक्प नहीं है । जैसा कि बाबासाहब ने कहा था , यह पाटटी का अनुशासन है , जिसने पंजाब में कानून अधिकारियों की नियुलकत में आरक्षण की नीति लागू नहीं होने पर उनहें आवाज़ उठाने से रोका । वह एक शबद भी नहीं बोल सके जब उनके महाधिवकता ने अदालत को बताया कि सरकार को आरक्षण की कानूनी आवशयकता नहीं दिखती कयोंकि कानून अधिकारियों की ‘ दक्षता ’ सबसे महतिपूर्ण विचार था । यह संभावना नहीं है कि वित् मंत्ी , जो पंजाब के सबसे वरिषठ दलित विधायक हैं , पाटटी आलाकमान से हरी झंडी के बिना ‘ अनुसूचित जाति उपयोजना ’ जैसी दलित क्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सक्षम होंगे । अगर पंजाब जैसे एससी-बहुल राजय में ऐसा है , तो हम अनय अ्पसंखयक राजयों से कया उममीद करते हैं ?
ऐसे में चुनावी वयिसिा पर सीधा सवालिया निशान खड़ा हो गया है । राजनीतिक क्षेत् में प्रतिनिधिति और आरक्षण की वर्तमान वयिसिा ने एक ऐसे युग का निर्माण किया है जिसे साहब कांशीराम ने 1982 में ‘ चमचा युग ’ कहा था ।
vxLr 2023 21