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कम है । सीर्ों के लिहाज से देखा जाए तो इस बार बसपा ने सबसे खराब प्रदर्शन वक्या है और उसे सिर्फ एक सीर् पर ही जीत मिल पाई है और जैसे — तैसे वह विधानसभा में सिर्फ अपना अससतति बचा पाने में ही काम्याब रही है । बसपा के वोर् बैंक में इतनी बडी संख्या में गिरािर् और 2012 से उसे लगातार मिल रही हार ्ये ्यह भी साफ हो ग्या है कि अब बसपा का वोर् बैंक उससे पूरी तरह छिर्क ग्या है । ऐसे में सवाल उठता है कि अब उत्र प्रदेश की दलित राजनीति किस ओर करिर् बदलेगी ।
यूपी में चेहरञा बदल रही दलित रञाजनीक्त ?
वर्ष 1989 से उत्र प्रदेश दलित राजनीति का मा्यिती चेहरा रही हैं । उत्र प्रदेश में मा्यावती ने अपना पहला चुनाव 1984 में कैराना सीर् से लोकसभा चुनाव लडा था । लेकिन वह हार गईं थी । लेकिन 1989 की बिजनौर लोकसभा सीर् ने उनहें पहली बार जीत का सिाद चखा्या था । उसके बाद उनके लिए 1993 का
विधानसभा चुनाव बेहद अहम साबित हुआ । जब इस चुनाव में पहली बार काशीराम और मुला्यम सिंह ्यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा और समाजवादी पार्टी को 109 एवं बसपा को 67 सीर्ें मिली । मुला्यम के नेतृति में सपा और बसपा की सं्युकत नेतृति वाली सरकार बनी और मा्यावती राज्यसभा पहुंच गई । इसके बाद मा्यावती भाजपा के सह्योग से पहली बार 1995 में मुख्यमंत्ी बनी । इसके बाद 1996 के चुनावों में बसपा को पहली बार 19.64 फीसदी वोर् मिले । और ्यह सिलसिला 2017 तक चलता रहा । और करीब 25 साल बाद ्यह सिलसिला र्ूर् ग्या और 2022 में उसे केवल 12.88 फीसदी ्यानी करीब 1.18 करोड ही वोर् मिले । इसमें भी ्यह सवाल बदसतूर मौजूं है कि बसपा को इस बार जो कुल वोर् मिले उसमें उसके कैडर वोर् कितने रहे , परंपराबत वोर्रों ने उसे कितना वोर् वद्या और गैर — दलित समाज के जिन उममीदवारों को बसपा ने अपने वर्कर् पर चुनाव मैदान में उतारा उनहोंने अपने समाज व गैर — दलित समर्थकों के कितने वोर् बसपा को
दिलाए । ्यानी समग्ता में समझें तो इस बार तकरीबन जिन बारह फीसदी वोर्रों ने बसपा के पक् में मतदान वक्या उनहें सीधे तौर पर दलित समाज की भावनाओं का प्रतिबिमब नहीं कहा जा सकता है । इस तरह एक बात तो साफ हो गई है कि ्यूपी में दलित समाज ने अपने परंपरागत सरावपत राजनीतिक चेहरे को अब पूरी तरह दरकिनार कर वद्या है । हालांकि मा्यावती से दलित समाज के मोहभंग के चुनाव दर चुनाव चरणबधि सिलसिले का लाभ उठाने के लिए एक अन्य ्युवा दलित चेहरे ने दलितों को अपने झांसे में लेने और उनहें मा्यावती से अलग विकलप देने का प्र्यास अवश्य वक्या लेकिन उसकी राजनीतिक महतिाकांक्ाएं और सिारटी सोच की कलई पहले ही खुल गई जब दलित समाज के हितों को आगे रखकर चुनावी समझौता करने का प्र्यास करने के बजा्य उसने सिर्फ सीर्ों की संख्या के लिए सपा से सौदेबाजी का प्र्यास वक्या । नतीजन आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की सपा से बात नहीं बन पाई । दूसरी ओर उसे जमीनी सतर पर
26 दलित आं दोलन पत्रिका vizSy 2022