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राजनैतिक दल कांग्ेस की दीवारें हिला वद्या करते थे । लेकिन दलितों को भारी सदमा तब पहुंचता था जब ्यही भारी-भरकम नेता कांग्ेस में ही समाधि ले वल्या करते थे । सामाजिक परिवर्तन की उममीदों को ग्हण लगते हमने अपनी आंखों से देखा है । आज की बहुजन समाज पार्टी ( बसपा ) को जनम देने वाले बाबू कांशीराम , जिनहें बाद में साहेब कांशीराम और मान्यवर कांशीराम के संबोधन से पुकारने की परंपरा को अपना्या ग्या , से उनके वैचारिक परिवर्तन का भी अंदाजा लगा्या जा सकता है । सामाजिक परिवर्तन का नारा बामसेफ के मंचों पर तो दिखाई वद्या करता था , लेकिन डीएस- फोर ( दलित शोषित संघर्ष समिति ) तक आते- आते उन बुवधिजीवि्यों को अलविदा कह वद्या ग्या , जो सामाजिक सरोकारों के कारण ही बाबू कांशीराम के नेतृति में काम करने को जुडे थे । बामसेफ जैसी संसरा का मुख्य उद्ेश्य तो दलित , पिछडे कर्मचारर्यों को एक मंच पर लाना था । लेकिन वासतविकता ्यह थी कि दलितों की ही रेलमपेल इस संगठन में बनी रही जो कि बसपा के अससतति के साथ ही आगे बढ़ी । डीएस-फोर द्ारा सृजित वक्ये ग्ये नारे हमें बताते रहे कि
तमाम अन्य सामाजिक सरोकार , जिनके जनमदाता डॉ . आंबेडकर थे , को धत्ा बता वद्या जा्येगा ।
मञायञािती ने कियञा सत्ता के लिए समझौतञा
कांशीराम अपनी मुहिम के दौरान जब हमारे शहर में थे , उनसे पूछा ग्या कि आप क्या बौधि धर्म सिीकार करेंगे , तो उनहोंने कहा कि जब मेरे लाखों अनु्या्यी हो जा्येंगे तो ही बौधि धर्म ग्हण करूूंगा । लेकिन उनका ्यह वकतव्य अंत तक अधूरा ही रहा । उनहें उत्र प्रदेश की सत्ा तो मिली , लेकिन तमाम सामाजिक सरोकार सिर्फ कुछ आंबेडकर पाकणों तथा उनकी मूवत्थ्यों तक ही सिमर्ते चले ग्ये । सत्ा की भूलभुलै्या में इन सामाजिक सरोकारों पर सम्य की धूल लगातार पसरती रही । सत्ा के गर्म लहू में ्यह सामाजिक सरोकार कभी गर्म न हो सके । बाबू कांशीराम के बाद मा्यावती के दौर में भी इन सामाजिक सरोकारों की कोई सुध नहीं ली गई । दलित-वर्ग के पांवों के नीचे की जमीन को हरर्याली की वो खूशबू कभी नसीब नहीं हुई , जिसके वादे
लगातार वक्ये जाते रहे । राजनीति में लेन-देन का दौर ऐसा चरम पर पहुंचा कि दलितों की तमाम कठिनाइ्यों पर सत्ा की धूल पडती चली गई । जो दलित आशावादी दृष्टिकोण से इन नेताओं को निहारा करता था , वह निराशा का कूंबल ओढ़ कर पुनः कांग्ेस की ओर देखने पर बाध्य हुआ , जिसे आंबेडकर एक जलता हुआ महल कहा करते थे ।
सञामञाजिक और रञाजनीक्तक अत्याचञार की दोहरी मञार
कहना न होगा कि सत्ा की अपनी धरती होती है , उस पर नेता अपनी फसल बोता है । इसके लिए आम जनता भी समाज की तमाम बुराइ्यों को नेसतानाबूद करने के हलफ़ उठाते हु्ये चलती रहती है । फिर वह सम्य आता जब उनहें पता ही नहीं चलता कि कब नेता अपना दामन छुडा लेता है । मैं आंबेडकर के इस लिखित कथन को उधिृत करना चाहता हूं कि सामाजिक अत्याचार के मुकाबले राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं और वह सुधारक जो सामाजिक अत्याचार का विरोध करता है , उस राजनीवतज् से अधिक साहसी होता है , जो सरकार का विरोध करता है । �
24 दलित आं दोलन पत्रिका vizSy 2022