कथनी-करनी में अं तर , सत्ा पाते ही सरोकार छू -मंतर
द्ारका भारती ek
दिशाहीन राजनीति में नेतृत्व विहीन दलित दलित राजनीति की सामाजिक सरोकारों से दूरी
ना जाता है कि दलित राजनीति का प्या्थ्य ही सामाजिक मुद्े हैं । ्यही धारणा माकस्थिादी विचारधारा से पनपी राजनीति में भी देखी जाती रही थी । इन अरणों में देखा जा्ये तो दलित राजनीति की सबसे बडी त्ासदी भी ्यही रही है कि वह जिन सामाजिक सरोकारों के पीठ पर सवार होकर सत्ा तक पहुंचती रही है , उनहीं सामाजिक सरोकारों को अनदेखा वक्ये जाने से ही , सत्ाच्युत भी होती रही है ।
दलित नेतञाओं ने ही दियञा दलितों को धोखञा
दलित राजनीति के इतिहास की बात करें तो वह इतना पुराना तो नहीं , लेकिन आज तक उसने इतना उतराव-चढ़ाव देखे हैं कि उसे बिलकुल भी न्या-नवेला भी नहीं कहा जा सकता । डॉ . आंबेडकर से लेकर कांशीराम- मा्यावती तक के इस सफर ने बहुत से झंझावातों को अपनी पीठ पर झेला है । ्यह एक कर्ु-सत्य भी है कि लगभग सात दशकों तक की इस पुरानी राजनीति ने दलितों को जो वद्या है , वह सिर्फ ्यही है कि आंबेडकर को छोड कर दलित नेताओं ने दलितों के नाम पर सिर्फ राजनीति ही की है , ्या राजनीति में खुद की पहचान बनाकर गैर-दलित राजनीति में
अपना सरान बनाने की कवा्यद को ही निबाहा है । हमने देखा है कि डॉ . आंबेडकर जब राजनीति करते थे , तो वे इस राजनीति को सामाजिक परिवर्तन के उद्ेश्यों की पूर्ति के वल्ये ही प्र्योग में लाने की इचिा से प्रेरित देखे जाते थे । लेकिन आज के दलित नेताओं ने जिस चालाकी से राजनीति को एक ऐसी चाबी प्रचारित कर वद्या है , जो कि दलितों की तमाम समस्याओं के बंद ताले खोल सकती है , देश के लगभग सभी दलित राजनेता की
सत्ालोलुपता ने दलित बुवधिजीवी को हतप्रभ कर वद्या है , जो कि दलित समाज में आमूलचूल परिवर्तन की इचिा पाले हु्ये हैं ।
अतीत : कञांशीरञाम के सञार मञायञािती
हमने देखा है कि डॉ . आंबेडकर द्ारा गठित राजनैतिक दल रिपसबलकन पार्टी ऑफ इंवड्या ( आरपीआई ) ने अनेकानेक नामी गिरामी नेताओं को जनम वद्या , जो कि उस सम्य के प्रमुख
vizSy 2022 दलित आं दोलन पत्रिका 23